पूर्ण शून्य है,शून्य ब्रह्म है
एक अंश सबको हर्षाये
आधा और अधूरा होवे,
शायद प्रेम वही कहलाये
मिट जाये तन का आकर्षण
मन चाहे बस त्याग-समर्पण
बंद लोचनों से दर्शन हो
उर में तीनों लोक समाये
उधर पुष्प चुनती प्रिय किंचित
ह्रदय-श्वास इस ओर है सुरभित
अनजानी लिपियों को बाँचे
शब्दहीन गीतों को गाये
पूर्ण प्रेम कब किसने साधा
राधा-कृष्ण प्रेम भी आधा
इसीलिये ढाई आखर के
ढाई ही पर्याय बनाये .....
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, छत्तीसगढ़
[मौलिक व अप्रकाशित]
Comment
एक अनुभूत सत्य को प्रकाशित करती जीवंत रचना ।
हार्दिक बधाई, आदरणीय अरुण निगम जी।
सादर,
विजय निकोर
बधाई अरुण भाई सुंदर रचना की। सच ही कहा प्रेम कभी पूर्ण नही हो पाता ।
आदरणीय अरुणभाई जी, तत्त्वबोध के प्रति आपका आग्रह रुचिकर लगा. सुन्दर प्रस्तुति हुई है, बधाई..
आदरणीय आपको सदस्य कार्यकारिणी बनने के लिये भी शुभकामनाये एवम बधाई..
बहुत हि सुन्दर रचना आदरणीय निगम सर बधाई स्वीकारें......
वाह ! और वाह ! मधुरतम
दिली मुबारकबाद के सच्चे हक़दार है आप
आदरणीय अरुण निगम भाई , बहुत अद्भुत , बहुत सुन्दर बातें कही है प्रेम के ऊपर !!! सुंदर रचना के लिये आपको हार्दिक बधाई !!!!!!
वाह वाह आदरणीय गुरुदेव श्री बहुत ही सुन्दर सुमधुर मनोहारी गीत प्रस्तुत किया है आपने पढ़कर मन तृप्त हो गया हृदयतल से बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
ह्रदय आनंदित हो उठा ...पठनीय रचना ..वाह !
आधा और अधूरा होवे,
शायद प्रेम वही कहलाये....बेजोड़
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