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प्रेम के कवित्त - (रवि प्रकाश)

1.धार तू,मझधार तू,सफ़र तू ही,राह तू,
घाव तू,उपचार तू,तीर भी,शमशीर भी।
जाने कितने वेश है,दर्द कितने शेष हैं,
गा चुके दरवेश हैं,संत ,मुर्शिद,पीर भी।
ध्वंस किन्तु सृजन भी,भीड़ तू ही,विजन भी,
छंद है स्वच्छन्द किन्तु,गिरह भी,ज़ंजीर भी।
भाग्य से जिसको मिला,उसे भी रहता गिला,
पा तुझे बौरा गए,हाय,आलमगीर भी॥

 

 
2.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,
कुछ ग़ज़लों में पले,कुछ नवगीत बने।
पथ भूले,पगलाए,जग से विलग हुए,
पा कर तुझको हाय! हम अविनीत बने।
परिमल कैसे छूटे,आराधन कैसे टूटे,
जब तुम सा मायावी,मेरा मनमीत बने॥

मौलिक व अप्रकाशित।

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 2, 2013 at 11:19pm

भाई रवि प्रकाश जी,   प्रयास हेतु धन्यवाद.  अच्छा प्रयास हुआ है. 

कवित्त यानि घनाक्षरी में सदा एक तथ्य याद रखियेगा कि यह वर्णिक छंद होता है और प्रयुक्त शब्दों के अक्षरों को लघु गुरु आदि के कुछ  नहीं बताता.  यानि सुगढ शब्द संयोजन का दायित्व रचनाकार पर ही होता है.  यदि शब्दों का सुरुचिपूर्ण संयोजन न हुआ तो वाचन आनन्द नहीं कष्टप्रद होजाता है.

शब्द संयोजन में भी  सम विषम विषम  या विषम सम विषम के संयोजन से बचना चाहिये.

इस हिसाब से अपनी प्रस्तुति को देखिये. 

शुभेच्छाएँ

Comment by Ravi Prakash on July 31, 2013 at 7:52pm
thanks mishra ji.
Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 31, 2013 at 4:58pm

ravi jee aapkee rachna mujhe behad pasand aayee..chuninda khoobsurat alfaajon roopee pushp ke is guldaste ke liye hardik badhaaayee 

Comment by Ravi Prakash on July 31, 2013 at 12:51pm
thanks geet ji.
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 31, 2013 at 11:40am

.डूब चले थे जिनमें,उनसे ही पार चले,
जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।
कितने साँचों में ढले,सारे संकेत तुम्हारे,
कुछ ग़ज़लों में पले,कुछ नवगीत बने।........कविता में ये पंक्तियां बहुत खुबसुरत हैं

आदरणीय रवि जी, रचना पर हार्दिक बधाई

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on July 31, 2013 at 12:31am

पथ भूले,पगलाए,जग से विलग हुए,
पा कर तुझको हाय! हम अविनीत बने anupam bhavabhiyakti. Naman aapki lekhni ko. Badhaiyaa

Comment by Ravi Prakash on July 30, 2013 at 7:16pm
आपका आकलन सटीक और परिपक्व होता है।धन्यवाद।
Comment by अरुन 'अनन्त' on July 30, 2013 at 4:10pm

भाई रवि प्रकाश जी आपकी कविता के भाव बेहद सुन्दर होते हैं पढ़कर आनंद आता है, इसमें तनिक जल्दबाजी प्रतीत हो रही है. खैर प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें.

Comment by annapurna bajpai on July 29, 2013 at 3:07pm

जिनमें थे हार चले,वो पल ही जीत बने।

bahut hi sunadar , badhai , adarniy .

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