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"बसंत"

मैंने देखा है 
आज दीवार के पीछे से 
*ढूंक रहा था 
कहीं कोई देख न ले 
उसको ऐसे नग्न 
इस बार प्रेम की 
तेज हवाएं 
उतार के ले गयीं 
उसके पीले वस्त्र 
और 
बदले में दे गयीं थी 
कुछ ताज़ा गुलाब 
जिनकी पंखुड़ी पंखुड़ी 
गलियारे में बिखरी थी 
बेचारा बसंत 
शर्मिंदा था

अपनी नादानी पे ..........दीप...........

*ढूंकना = चोरी चोरी नज़र बचा के झांकना 

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on February 18, 2013 at 8:55am

देशी पर छाई विदेशी को बेनकाब करती सुन्दर रचना आदरणीय संदीप जी सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by Tushar Raj Rastogi on February 17, 2013 at 8:51pm

सराहनीय रचना | सादर

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 17, 2013 at 1:30pm

आदरणीय गणेश बागी सर जी, आदरणीय लक्षमण सर जी सादर प्रणाम

रचना कर्म को सरहाने और उत्साह बढ़ाने हेतु आपका बहुत बहुत आभारी हूँ

स्नेह यूँ ही बनाये रखिये


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 17, 2013 at 12:55pm

बिम्बों और प्रतीकों का बढ़िया प्रयोग हुआ है भाई जी, रचना इशारों इशारों में बहुत बड़ी बात कह जाती है, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें ।

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 17, 2013 at 11:32am

आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम
आपने जो इन पंक्तियों की विवेचना की है मैं तो मुग्ध हो के

बार बार वही पढ़ रहा हूँ

आपकी ये प्रतिक्रिया मेरे मनोबल को बहुत उंचाई में जा रही है

ऐसा लग रहा है

किसी साधक को उसका फल मिल गया हो

ये स्नेह और आशीर्वाद यूँ ही बनाये रखिये गुरुदेव

आपका आभारी हूँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 16, 2013 at 9:38pm

भाई संदीप जी, आपने कैशोर्य मनोभावों के अति संवेनशील पहलू को बड़े ही संयत ढंग से प्रस्तुत किया है.

वस्त्र-बंधन.. जिज्ञासू मन की उद्विग्न उन्मुक्तता में पहली बाधा.. ओह्होह !  उस वयस को वर्जनाहीनता का बोध नहीं, किंतु उत्फुल्लता को संपूर्णता में जी लेने का निर्दोष हठ.. . ! .. तभी चेतना को हुआ भौतिक-आभास.. कि, संकोच एवं लज्जा के बलात् व्यापते जाने का अद्भुत अनुभव.. भौतिक संज्ञा काठ ! .. वाह-वाह ! सबकुछ बहुत ही सुन्दरता से अभिव्यक्त हुआ है. दिल जीत लिया, भाई तुमने !  ग़ज़ब किया है, भाई.. ग़ज़ब !

बसंत को इतना भावप्रद मान देने के लिए ढेरम्ढेर बधाइयाँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 16, 2013 at 9:24pm

//ढूंकना हमारे यहाँ का एक देशज शब्द है जिसका मतलब चोरी चोरी नज़र बचा के झांकना//

तब तो यह शब्द नितांत क्षेत्रीय हुआ. इसका अर्थ या निहितार्थ दे देना था. अब आपकी रचना को पुनः पढ़ता हूँ. 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 16, 2013 at 6:01pm

बसंत की नादानी का यह चित्रण,जिसमे नग्न छोटे बच्चे के सामने किसी के आते ही वह अपने जिस अंग को दोनों हाथो से ढकने की कौशिश करता है, के सामान है । सुन्दर रचना, बधाई संदीप भाई 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 16, 2013 at 4:10pm
आदरणीय गुरुदेव  सौरभ सर जी सादर प्रणाम 
आपका बहुत बहुत आभार रचना को  समय देने हेतु
सर जी ढूंकना हमारे यहाँ का एक देशज शब्द है जिसका मतलब चोरी चोरी नज़र बचा के झांकना  
स्नेह अनुज पर बनाये रखिये 
Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 16, 2013 at 4:06pm
आदरणीय राम सिरोमनि जी 
रचना को सराहने हेतु आपका बहुत बहुत आभार 
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये 

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