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शब्दों के भण्डार से, भरके मीठे बोल,
बेंचो घर-घर प्रेम से, दिल का ताला खोल,

नैनो से नैना मिले, बसे नयन में आप,
मधुर-मधुर एहसास का, छोड़ गए हो छाप,

मुख में ऐसे घुल गया, जैसे मीठा पान,
भाता सबको खूब है, दोहों का मिष्ठान,

मन में लागी है लगन, सीखन की है चाह,
धीरे-धीरे दिख रही, मुझको सच्ची राह,

बेटा जुग-जुग तुम जियो, जननी दे आशीष,
माता की पूजा करो, चरणों में रख शीश,

सुख-दुख करता ना दिखा, जात पात का भेद,
मानव से नफरत करो, नहीं सिखाता वेद.

("मौलिक व अप्रकाशित")

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Comment by अरुन 'अनन्त' on February 1, 2013 at 11:24am

आदरणीय सलिल सर सुप्रभात गुरुदेव श्री के साथ-साथ आपके द्वारा बताये गए नियमों का पालन अवश्य होगा, आपसे एक गुजारिश है आप सदैव निःसंकोच टिप्पणियां करें मुझे प्रसन्नता होगी. सर अन्यथा जैसे शब्दों की मुझे या मेरा शब्दकोष को जरुरत नहीं है. मुझे मालुम है अन्यथा लेने से मेरी ही हानि है और स्वयं की हानि मैं तो बिलकुल नहीं चाहता सर. स्नेह और आशीष बनाये रखें मुझे आवश्यकता है. सादर

Comment by sanjiv verma 'salil' on February 1, 2013 at 11:20am

अरुण जी!
सौरभ जी ने बहुत सही सुझाव दिए हैं. उन पर तथा निम्न पर ध्यान दें. प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ उत्साहवर्धन के लिए हैं.
शब्दों के भण्डार से, भरके मीठे बोल,
बेंचो घर-घर प्रेम से, दिल का ताला खोल,
('भरके' के स्थान पर भरकर, 'बेचो' के स्थान पर 'बाँटो' हो तो बेहतर होगा)
नैनो से नैना मिले, बसे नयन में आप,
मधुर-मधुर एहसास का, छोड़ गए हो छाप,
(आदरसूचक 'आप' के साथ 'हो' के स्थान पर 'हैं' का प्रयोग अधिक उचित है, 'हो' के साथ अपनत्वसूचक 'तुम' का प्रयोग हो)
मुख में ऐसे घुल गया, जैसे मीठा पान,
भाता सबको खूब है, दोहों का मिष्ठान,
(मिष्ठान सही नहीं है, शुद्ध मिष्ठान्न है, तुक के लिए बदलाव करें तो बेहतर रूप निखरेगा, क्रम दोष के निवारण के लिए पहली पंक्ति को दूसरी और दूसरी को पहली बना सकते हैं.)
मन में लागी है लगन, सीखन की है चाह,
धीरे-धीरे दिख रही, मुझको सच्ची राह,
(लागी, सीखन जैसे शब्द रूप लोक भाषा में मान्य हैं किन्तु साहित्यिक हिंदी में अशुद्धि माने जाते हैं)
बेटा जुग-जुग तुम जियो, जननी दे आशीष,
माता की पूजा करो, चरणों में रख शीश,
('श' के साथ 'श' शीश, ईश आदि तथा 'ष' के साथ 'ष' आशीष, मनीष आदि की तुक बैठा सकें तो अधिक शुद्ध होगा)
सुख-दुख करता ना दिखा, जात पात का भेद,
मानव से नफरत करो, नहीं सिखाता वेद.
('ना' के स्थान पर 'न', पात = पत्ता, पांत = पंक्ति, कतार)

आपके दोहे शिल्प की दृष्टि से शुद्ध हैं. बधाई. अब भाषा, भाव, रस और बिम्ब को जितना संवारेंगे उतना ही अच्छा रच सकेंगे. सुझावों को अन्यथा न लें, उचित लगें तो मानें अन्यथा भुला दें.

Comment by अरुन 'अनन्त' on February 1, 2013 at 10:46am

आदरणीय गुरुदेव श्री आपको शत-शत नमन, अगर आपसे मिलना न होता और आपकी दृष्टि मुझपर न पड़ती तो मुझ अज्ञानी का क्या होता, ज्ञान से वंचित रह जाता. आप का कथन चिंतन करने के लिए विवश करता है और अच्छा भी लगता है शायद ये मानसिक चिंतन अत्यंत आवश्यक भी है. आपका धन्यवाद करते हुए भी हिचक हो रही है क्यूंकि आपके इस अपार स्नेह के आगे ये शब्द बहुत छोटा प्रतीत होता है, बस एक ही बात कहना चाहूँगा यह आशीष और स्नेह यूँ ही बनाये रखें आपकी बड़ी कृपा होगी. सादर चरण स्पर्श

Comment by अरुन 'अनन्त' on February 1, 2013 at 10:40am

आरती जी, राजेश जी, भाई संदीप जी एवं आदरणीय अशोक सर आप सभी को सहयोग हेतु अनेक-अनेक धन्यवाद.

Comment by Ashok Kumar Raktale on February 1, 2013 at 8:56am

मुख में ऐसे घुल गया, जैसे मीठा पान,
भाया प्रभुजी  खूब है, दोहों का रसपान,

भाई अरुण जी बहुत सुन्दर दोहे लिखे हैं हार्दिक बधाई स्वीकारें.आदरणीय गुरुजी द्वारा दी गयी सलाह आपके साथ ही मुझे भी लाभान्वित कर रही है.सादर.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 31, 2013 at 8:32pm

लगन से किया हुआ कार्य सदैव सफलता प्राप्त करता है ...................बहुत बहुत बधाई आपको

बाकी गुरुदेव के कहे से सहमत हूँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 31, 2013 at 8:17pm

आप द्वारा हुआ छंदों पर प्रयास मुग्ध कर रहा है, अरुन अनन्त जी. बहुत सही कदम उठाया आपने,  इस् अप्रयास के लिए ही प्रथम बधाई. 

अब मैं आपके दोहों पर आता हूँ -

शब्दों के भण्डार से, भरके मीठे बोल,
बेंचो घर-घर प्रेम से, दिल का ताला खोल,

यह दोहा तार्किक रूप से उचित अटपट लगा, भाईजी. शब्दों के भंडार से बोल लेना तो चलो ठीक है, लेकिन उसको बेचना ? यह कैसा बिम्ब है भइया ? वह भी दिल का ताला खोल कर बेचना ? दिल का ताला खोल कर कुछ बेचा जाता है या लुटाया जाता है ? यह मंचीय कवियों की सपारश्रमिक कविता-पाठ पर यह व्यंग्य है क्या ? खैर.. . और, सही शब्द बेचना है, बेंचना नहीं.

नैनो से नैना मिले, बसे नयन में आप,
मधुर-मधुर एहसास का, छोड़ गए हो छाप,

यह अभ्यास के लिहाज से ठीक है, वर्ना, प्रथम सम चरण के ’आप’ के साथ द्वितीय सम चरण में प्रयुक्त ’गये हो’ कुछ मेल नहीं खाता.  ऐसी बोलचाली-भाषा दिल्ली और आस-पास के क्षेत्रों में अवश्य चलती है लेकिन साहित्य में अबतक स्वीकार्य नहीं जबतक कि किसी हिन्दी गद्य या पद्य रचना का विशुद्ध रूप से कथानक ही ऐसा न हो. और, यहाँ ’एहसास’ शब्द को सही मात्रिकता के लिये ’अहसास’ से बदल लें. इस शब्द का दोनों रूप प्रचलित है. 

मुख में ऐसे घुल गया, जैसे मीठा पान,
भाता सबको खूब है, दोहों का मिष्ठान,

दोहा एक दफ़े जब पान बन हो गया तो फिर अगली पंक्ति में मिष्टान्न कैसे बन गया, भाई ? (छप्पन) व्यंजनोपरांत लिया जाने वाला पान वस्तुतः मिष्टान्न का अंग न हो कर मुख-वास व पाचनवर्द्धक हुआ करता है.   :-))

रचना प्रक्रिया में ऐसी तार्किकता न हो तो रचनाएँ शब्दों की जमघट मात्र हो कर रह जायें, भाई.

मन में लागी है लगन, सीखन की है चाह,
धीरे-धीरे दिख रही, मुझको सच्ची राह,

वाह ! वाह ! .. . हार्दिक शुभकामनाएँ, अरुन अनन्त भाई.. .

बेटा जुग-जुग तुम जियो, जननी दे आशीष,
माता की पूजा करो, चरणों में रख शीश,

यह दोहा अभ्यास के लिहाज से ठीक है.

सुख-दुख करता ना दिखा, जात पात का भेद,
मानव से नफरत करो, नहीं सिखाता वेद.

जात-पात का भेद सुख-दुख करता दिखता है जो आपको नहीं दिखा !? यह पंक्ति कुछ समझ में नहीं आयी, बंधु. दूसरे, आपने वेद पढ़ा है ? वेद तो मानव के बीच नफ़रत आदि विन्दुओं पर स्पष्ट रूप से कुछ कहता ही नहीं भाई. वेद के विषय ही थोड़े अलग हैं. उनको हम मात्र धार्मिक पुस्तक न समझ लें. जैसा कि हम अन्य उपलब्ध भक्ति-साहित्य की पुस्तकों को समझ लेते हैं.

खैर, यह तो हुआ तार्किकता के चश्में से रचना-प्रयास को देखना. लेकिन मात्रिकता और शब्द विन्यास के लिहाज से दोहो अति उत्तम हैं. और आपने बहुत बड़ी विजय प्राप्त कर ली है. अन्यथा, छंदों पर अच्छे-अच्छे महीनों झूलते रह जाते हैं, बंधु.

ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएँ.. .

Comment by राजेश 'मृदु' on January 31, 2013 at 7:09pm

भाई अरून जी हमें तो बड़ा प्‍यारा लगा आपका ये अंदाज

Comment by Aarti Sharma on January 31, 2013 at 4:47pm

बहुत खूब अरुण जी..बधाई

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 31, 2013 at 4:07pm

पाठक जी आपको दोहे उत्तम लगे सुनकर कर अच्छा लगा परन्तु वस्तुतः ये उत्तम हैं या नहीं ये तो गुरुजन ही बतलायेंगे.

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