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गजल -- हो रहा है फिर उजाला इस शहर में !!!

हो रहा है फिर उजाला इस शहर में,
जल उठी है मोमबत्ती मेरे घर में ।

आँधियों के पैर कतराने लगे हैं,
है समंदर आस का अब हर नजर में ।

देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में ।

शाम से महसूस होती है थकावट,
लौट आती है जवानी, नव सहर में ।

यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में ।

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 17, 2013 at 7:14pm

आदरणीय सौरभ जी,  आप जैसे जानकार अग्रज/मित्र की टिप्पणी पाकर (मुझ जैसे)  नये (और अल्पज्ञानी) रचनाकार को कितना सुकून मिलता है, बयाँ नहीं कर सकता ।   :)


आपको गज़ल अच्छी लगी, मेरा गज़ल कहने का मकसद साकार हुआ ।

आगे भी आपसे एवम OBO परिवार के अन्य मित्रों से मार्गदर्शन और सहयोग की उम्मीद में....

--- आशीष 'सलिल'  :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 16, 2013 at 8:00pm

विलम्ब से इस सुन्दर प्रस्तुति पर आने के लिए क्षमा चाहता हूँ, भाई आशीष नैथानी सलिलजी.

आपकी ग़ज़ल मतला से मक्ता तक एक विशेष अंदाज़ में है और आपके सुन्दर प्रयास का सशक्त बखान है. विशेषकर मक्ते के लिए मैं बार-बार धन्यवाद कह रहा हूँ -

यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में । ....  वाह, सलिल जी वाह !

बह्र को बहर कहना विशेष रूप से भाया है.

शुभेच्छाएँ.

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 12, 2013 at 10:17pm

शुक्रिया आदरणीय गणेश जी ! गजल को बहर में लिखना सीख रहा हूँ और आप सभी से मार्गदर्शन की आशा रखता हूँ ।
गजल पसन्द करने के लिये एक बार पुनः धन्यवाद ।  :)


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 12, 2013 at 8:37pm

देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में ।

वाह वाह, बहुत ही सुन्दर कहन, सभी अशआर खुबसूरत निकाले हैं, अच्छी ग़ज़ल आशीष नैथानी जी , दाद कुबूल करें |

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 12, 2013 at 11:59am

भाई 'अनन्त जी' गजल पसन्द करने और हौसला-अफजाई के लिए तहे-दिल से शुक्रिया ।

आपने हर शेर पर दाद लिखी, अद्भुत लगा ।  :-)

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 12, 2013 at 11:17am

हो रहा है फिर उजाला इस शहर में,
जल उठी है मोमबत्ती मेरे घर में । बढ़िया

आँधियों के पैर कतराने लगे हैं,
है समंदर आस का अब हर नजर में । वाह वाह

देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में । क्या बात है

शाम से महसूस होती है थकावट,
लौट आती है जवानी, नव सहर में । मजेदार

यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में । सुन्दर अति सुन्दर

मित्रवर अच्छी गज़ल बन पड़ी है, सभी के सभी अशआर खूबसूरत हैं दिली दाद कुबूलें. सादर

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 11, 2013 at 10:05pm

शुक्रिया शुभ्रा जी !

Comment by shubhra sharma on January 11, 2013 at 9:00pm

गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में,

वाह सलिल जी सुन्दर पंक्ति,

 हम भी जीते है बेमन से इस शहर में 

काश | कुछ कम हो गम किसी पहर में 
......................शुभ्रा 

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