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जिस तरह दिनकर चमकता
व्योम में,
अलविदा कहता निशा को,
बादलों के झुण्ड को
पीछे धकेले ।

काश होता एक सूरज
ख़ुशी का भी ।

कोई तापता धूप सुबह की,
कोई बिस्तर डाल देता दोपहर के घाम में ।
खुशनुमा गरमी भी होती
कम व ज्यादा,
पूष से ज्येष्ठ तक ।
और पसीना भी निकलता,
इत्र सा ।

काश कल्पा हो उठे साकार,
एक 'खुशकर' हो भी जाये
दिवाकर सा ।।

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Comment

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 10, 2013 at 7:23pm

शुक्रिया... आदरणीय प्रदीप जी |

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 10, 2013 at 7:22pm

आदरणीय गणेश जी, कविता पसन्द करने के लिए धन्यवाद ।

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on January 10, 2013 at 4:24pm

मनोकामना पूर्ण हो 

आदरणीय आशीष जी 

सादर बधाई 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 10, 2013 at 4:17pm

सुन्दर कामना, अच्छी रचना बन पड़ी है, धूप और घाम दोनों तो एक ही है, किन्तु प्रयोग ऐसा हुआ है जैसे दोनों शब्द के अर्थ अलग अलग हो, कृपया ध्यान दें , बधाई स्वीकारे इस प्रस्तुति पर |

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 9, 2013 at 7:13pm

धन्यवाद अमितेष जी  :)

Comment by अमि तेष on January 9, 2013 at 5:31pm

होगा जरुर होगा ....... वाह 

कृपया ध्यान दे...

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