221 - 1222 - 221 - 1222
हम जिनकी मुहब्बत में दिन रात तड़पते हैं
होते ही ख़फ़ा हमसे दुश्मन से जा मिलते हैं
गुलशन में तेरे हर दिन नए ग़ुंचे चटकते हैं
गिर जाते हैं कुछ पत्ते कुछ फूल महकते हैं
माली है तू हम सबका हम भी हैं तेरी बुलबुल
हमको ये शरफ़ हासिल हम यूँ ही चहकते हैं
आँखों में मुहब्बत भर देखा जो हमें तुम ने
छाया है सुरूर ऐसा हम ख़ुद ही बहकते हैं
कुछ ऐसी तपिश तेरे पैकर की हुई दिलबर
अंगारे भी इस आतिश से कम ही दहकते हैं
समझेंगे वो क्या हमको जाने न जो ख़ुदको भी
जो हम हैं समझते बस वो हम ही समझते हैं
समझो न हमें यूँ ही रखते हैं ख़बर सबकी
मन्सूबे तुम्हारे भी हम ख़ूब समझते हैं
लब हैं कि सुबू हैं ये आँखें हैं कि मयख़ाना
मदहोशी का आलम है हम देख बहकते हैं
''मौलिक व अप्रकाशित''
Comment
जनाब बृजेश कुमार 'बृज' जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई के लिए बेहद मशकूर हूँ। सादर।
वाह वाह आदरणीय बहुत बहुत बधाई इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई के लिए बेहद मशकूर हूँ। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन'अमीर'जी अच्छी ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें।
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन ।अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
जनाब कृष मिश्रा 'जान' गोरखपुरी साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
खूबसूरत ग़ज़ल हेतु हार्दिक बधाई आ. अमीरुद्दीन अमीर सर जी।
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