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"पालकी आंसुओं की"

लम्हा- लम्हा
जहाँ पे भारी था, होंठ अनवरत
मुस्कुराए हैं
सच के साये से भी,जहाँ, रहा परदा
रिश्ते ऐसे भी कुछ निभाए हैं ।
फांस सी कभी हथेली में, कभी तलवों के
फूटते छाले
प्यार की हर नदी रही सूखी
दूर तक वृक्ष हैं
न,
साये हैं।
रेत तपती है
पांव के नीचे,
होंठ चटके हैं
प्यास से,लेकिन;
भेज दो स्वप्न
सब विदा करके,
पालकी आंसुओं की
लाए हैं ।

अन्विता ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by Anvita on May 17, 2020 at 9:16pm
बहुत बहुत धन्यवाद ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 13, 2020 at 8:17pm

आ. अन्विता जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on May 13, 2020 at 11:46am

मुहतरमा अन्विता जी आदाब, अच्छी रचना हुई, बधाई स्वीकार करें ।

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