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गिरिराज भंडारी's Blog (299)

एक तरही ग़ज़ल - मैं रंग मुहब्बत का थोड़ा सा लगा दूँ तो ( गिरिराज भंडारी )

221     1222     221      1222

 

चिलमन को ज़रा ऊपर , नज़रों से उठा दूँ तो

पर्दों की हक़ीक़त क्या , दुनिया को बता दूँ तो

 

ख़्वाबों में ख़यालों में , जीने का मज़ा क्या है

कुछ रंग हक़ीकत के , आज उसपे चढ़ा दूँ तो

 

ये उखड़ी हुई सांसे , लगतीं हैं बुलातीं सी

उन सांसों में मै अपनीं , सांसें भी मिला दूँ तो

 

नज़रों ने कही थी जो , नज़रों से कभी मेरी

वो बात सरे महफिल , मैं आज बता दूँ तो

 

राहे वफा में…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 28, 2015 at 3:44pm — 27 Comments

ग़ज़ल - सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं ( गिरिराज भंडारी )

22   22  22  22   22  2

ये कैसी महफिल में मुझको ले लाया

हर कोई लगता है गुमसुम, थर्राया

 

सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं

गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया

 

साहिल साहिल बात चली है लहरों में

तूफ़ाँ ने जब तोड़ी कश्ती, इतराया                                                                                                                                                               

क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?

धोते ही…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 24, 2015 at 10:07am — 22 Comments

ग़ज़ल - ' मौन को भी जवाब ही समझें ' -- गिरिराज भंडारी

' मौन को भी जवाब ही समझें '

2122   1212    112  /  22

***************************

जिन्दगी को हुबाब ही समझें

संग काँटे, गुलाब ही समझें

 

बदलियों ने चमक चुरा ली है

पर उसे माहताब ही समझें

 

शर्म आखों में है अगर बाक़ी

क्यों न उसको नक़ाब ही समझें  

 

इक दिया भी जला दिखे घर में

तो उसे आफ़ताब ही समझें

 

ठीक है , टूटता बिखरता है

पर उसे आप ख़्वाब ही समझें

 

दस्ते रस से अगर है दूर…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 19, 2015 at 10:25am — 42 Comments

ग़ज़ल -- हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122      2122      2122  

कौन सागर को मथेगा, और सागर कौन होगा

हर तरफ है ज़ह्र फैला , आज शंकर कौन होगा

 

कौन पर्वत से लिपट के पूँछ-मुँह बांटे किसी को

सब की बरक़त चाहता हो, ऐसा विषधर कौन होगा

 

चिलमनों से झाँक के सारे नज़ारे देखते हैं

आज सड़कों पे उतरने घर से बाहर कौन होगा

 

आज ज़िंदाँ की सलाखें सोचतीं हैं देख कर ये

सर परस्ती सब को हासिल, आज अंदर कौन होगा

 

ये ज़मीं तो चाहती है सब बराबर ही रहें…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 16, 2015 at 10:00am — 24 Comments

॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥ ( गिरिराज भंडारी )

॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥

कहने से नहीं

समझाने से नहीं

कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे

कौन रोक सकता है

बातें

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब

 

ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न

 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें

ये दिन , वो दिन

अफसोस होता है

 

पता नहीं क्यों

रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में

राधा-कृष्ण-मीरा को ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 14, 2015 at 8:55am — 16 Comments

(एक तरही ग़ज़ल )“सामान सौ बरस के हैं कल की खबर नहीं" ( गिरिराज भंडारी )

 221   2121  1221    2 2

रख ले चराग़ साथ में, शम्सो क़मर नहीं  --

रहजन बिना यहाँ पे कोई रहगुज़र नहीं

शम्सो क़मर - चाँद  सूरज

 

तेरी लगाई आग की तुझको ख़बर नहीं

सब ख़ाक हो चुका यहाँ  कोई शरर नहीं

रो ले अगर, तेरा बिना  रोये गुज़र  नहीं

लेकिन ये सच है, आँसुओं में अब असर नहीं

 

सब कुछ वही है इस जहाँ में , बस तेरे बिना

मेरी वो शाम गुम हुई , वैसी सहर नहीं

 

मिल जायें बदलियाँ तो वो सूरज को ढ़ाँक…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 11, 2015 at 8:30am — 29 Comments

॥ मै ईश्वर नहीं ॥ अतुकांत रचना ( गिरिराज भंडारी )

॥ मै ईश्वर नहीं ॥

**********

मै ईश्वर नहीं

किसी ईश्वरीय व्यवहार की उम्मीदें न लगायें

मै तो क्या कोई भी चाहे तो ईश्वर नहीं हो सकता

बस दूसरों में ईश्वरीय गुण खोजने में लगे रहते हैं

हम , आप , सब

इसलिये, आज

ये ऐलान है मेरा ,

मुझमें केवल इंसानी गुण ही हैं

अच्छों से उनसे अधिक अच्छा

बुरों से भरसक बुरा

उनके व्यवहार के प्रत्युत्तर में भेज रहा हूँ

कुछ दिल से निकली मौन गालियाँ

कुछ आत्मा से निकली बद…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 10:00am — 21 Comments

( ग़ज़ल )- ज़रूरी है क्या ? चश्मे तर खोजिये ---- गिरिराज भंडारी

ज़रूरी है क्या ? चश्मे तर  खोजिये

********************************

 

122    122    122    12

जहाँ ग़म  न हो ऐसा घर  खोजिये

जो हँसता मिले , बामो दर खोजिये

 

कोई  बाइसे  ज़िंदगी  भी  तो  हो

इधर  खोजिये  या उधर   खोजिये

 

बाइसे  ज़िंदगी = ज़िन्दगी का कारण

 

गिरा एक क़तरा था सागर में कल

ज़रा जाइये   अब  असर  खोजिये

 

अँधेरा , यक़ीनों…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 7, 2015 at 9:00am — 29 Comments

ग़लत कोई और है ( अतुकांत ) -- गिरिराज भंडारी

ग़लत कोई और है , हम क्यों बदलें

********************************

बैलों का स्वभाव उग्र होता है , प्रकृति प्रदत्त

होना भी चाहिये

बिना उग्रता के भारी भारी गाड़ियाँ  नहीं खींची जा सकती

जो उसे जीवन भर खींचना है

बिना शिकायत

 

गायें ममता मयी , करुणा मयी होतीं है

गायों की थन से बहता दूध ,

दर असल उसकी ममता ही है ,

अमृत तुल्य , कल्याण कारी

 

गायें उग्र नहीं होतीं

प्रकृति जिसे धारिता के योग्य बनाती है , उसे…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 6, 2015 at 11:00am — 18 Comments

" व्यर्थ का अचंभा " अतुकांत -- गिरिराज भंडारी

व्यर्थ का अचंभा

***************

अचंभित न होइये

आपके ही माउस के किसी क्लिक का परिणाम है

आपके कंप्यूटर स्क्रीन पर आई ये फाइल

गलती कंप्यूटर से हो नहीं सकती ,

कंप्यूटर ही गलत , बिग़ड़ा चुन लिया हो तो और बात

अगर ऐसा है तो,

इस ग़लत चुनाव का कारण भी आप ही हैं

कंप्यूटर सदा से निर्दोष है, और रहेगा

 

फाइल खुलने में देरी- जलदी हो सकती है

कंप्यूटर की शक्ति, प्रोसेसर , रेम , हार्डडिस्क के अनुपात में

लेकिन ये तय है…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 3, 2015 at 5:36pm — 19 Comments

क्या आप सच में वैसे ही हैं ? --- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

मेरे सबसे प्रिय रचनाकार  

कभी प्रत्यक्ष मिला नहीं आपसे

सपना है मेरा ,

आपसे मिलना , बातें करना

घंटों ,

किसी झील के किनारे

सूनसान में

 

आपकी हर रचनायें

गढती जाती है

मेरे अन्दर आपको

बनती जाती है

आपकी छवि ,

कभी धुंधली , कभी चमक दार , साफ साफ

क़ैद है मेरे दिलो दिमाग़ में

आपकी रचनाओं की सारी खूबियों के साथ

आपकी एक बहुत प्यारी छवि

 

क्या आप सच में वैसे ही हैं

जैसी आपकी…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 29, 2015 at 8:16am — 31 Comments

रिक्शा वाला -- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

रिक्शा वाला

************

आपको याद तो होगा

वो रिक्शा वाला

 

गली गली घूमता ,

माइक में चिल्लाता , बताता

आज फलाने टाकीज़ में , फलानी पिक्चर लगी है

पर्चियाँ हवा में उड़ाता

पर्चियों के लिये रिक्शे के पीछे भागते बच्चे

बच्चों को पर्चियाँ छीनते झपटते देख खुश होता

किसी निराश हुये बच्चे को पर्ची कभी अपने हाथों से दे देता

बिना किसी अपेक्षा के , आग्रह के ,

एक जानकारी सब से साझा करता

 

न कोई आग्रह , न…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 27, 2015 at 7:51am — 24 Comments

परिवर्तन - (अतुकांत): गिरिराज भंडारी

परिवर्तन

*******

 

बून्द की नाराजगी का संज्ञान

सागर ले ही

ज़रूरी नहीं

फिर भी नाराजगी बून्द की अपनी स्वतंत्रता है

प्रकृति प्रदत्त

 

संज्ञान अगर सागर ले भी ले तो

खुद में कोई परिवर्तन भी करे ये नितांत ज़रूरी नहीं  

वैसे हर नाराजगी कोई परिर्वतन ही चाहती हो किसी में

ये भी ज़रूरी नहीं

 

कुछ नाराजगी व्यवहारिक खानापूर्तियाँ भी होतीं है

कुछ स्वांतः सुखाय

अपने ज़िन्दा होने के सबूत के…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 25, 2015 at 10:00am — 25 Comments

' मै कभी नहीं मरता ' --अतुकांत -- गिरिराज भंडारी

मै कभी नहीं मरता

******************

आप बच नहीं सकते

उलझने से

ऐसा इंतिज़ाम है मेरा

फैला दिया है मैने मेरा अहंकार हर दिशाओं मे

हर दिशाओं के हर कोणों में

बस मैं हूँ , मैं

 

कहीं भी जायें, उलझेंगे ज़रूर

जब भी कोई उलझता है , मेरे मैं से 

चोटिल करता उसे

तत्काल मुझे ख़बर लग जाती है , और तब

मुझे खड़ा पाओगे तुम उसी क्षण

अपने विरुद्ध

तमाम हथियारों से सुसज्जित

 

ये भी तय है ,

हरा…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 22, 2015 at 9:30am — 18 Comments

( ग़ज़ल ) कोई ये कहे कैसे , मैं ही था गलत यारों - ( गिरिराज भंडारी )

212  1222     212    1222

क्या हुआ है रातों में, झुरमुटों से पूछो तुम

रो रहीं हवायें क्यूँ , डालियों से पूछो  तुम

 

ग़ायबाना भौंरों  के , फूल  क्यूँ   अधूरे हैं    --  ग़ायबाना - अनुपस्थिति में

सच तुम्हें बतायेंगीं , तितलियों से पूछो तुम

 

क्या हुआ है चंदा को, क्यूँ नज़र नहीं आता

ये चकोर क्या जाने, बदलियों से पूछो तुम

 

कोई ये कहे कैसे , मैं ही था गलत यारों

गोलियाँ चलीं कैसे , घाटियों से पूछो तुम

 

बे…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 19, 2015 at 2:30pm — 23 Comments

एक तरही ग़ज़ल - "हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं" ( गिरिराज भंडारी )

1222       1222      1222      1222

पहन रख पैरहन, उरियानियाँ अच्छी नहीं लगतीं

कि बद को भी, कभी बदनामियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

फसादी हो अगर, तो बोलियाँ अच्छी नहीं लगतीं

वहीं बेवक़्त की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं

 

खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके 

कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं

 

भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर

कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं 

चला आया है जुगनू…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 5:30pm — 23 Comments

अतुकांत - आपसी ताप से जलती टहनियाँ ( गिरिराज भंडारी )

आपसी ताप से जलती टहनियाँ

************************

आँधियों की छोड़िये

हवा थोड़ी भी तेज़ बहे, स्वाभाविक गति से

टहनियाँ रगड़ खाने लगतीं हैं

एक ही वृक्ष की

आपस में ही

पत्तियाँ और फूल न चाहते हुये भी

कुसमय झड़ जाने के लिये मजबूर हो जाते हैं

 

टहननियों की अपनी समझ है ,

परिभाषायें हैं खुशियों की ,

गमों की

फूल और पत्तियाँ असहाय

जड़ें हैरान हैं , परेशान हैं 

वो जड़ें ,

जिन्होनें सब टहनियों के लिये…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 14, 2015 at 1:16pm — 17 Comments

ग़ज़ल - दिल में सुलगा हुआ शरर देखा ( गिरिराज भंडारी )

२१२२    १२१२    २२ /११२

फिर  से उगता हुआ  जो पर देखा

तो बहुत  झूम  झूम   कर  देखा

 

धूप  में  झुलसा  हर  बशर  देखा   

तन  पसीने  से  तर ब तर  देखा

 

जल  सके  आग,  कोशिशें   देखीं

दिल  में  सुलगा  हुआ शरर  देखा

 

कारवाँ   साथ  था  चला   लेकिन

खुद को ही खुद का हम सफ़र देखा

 

सर परस्ती   रही   सियासत  की

ज़ुर्म  कर जो   झुका न सर  देखा

 

हद  के  बाहर  दुआ  में हाथ  उठे  

हर  ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 12, 2015 at 10:42am — 25 Comments

ग़ज़ल - कभी ठोकरों से सँभल गये -( गिरिराज भंडारी )

कभी ठोकरों से सँभल गये

*********************

11212      11212     11212    11212

न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये

मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये

 

तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को

कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये

 

कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना

कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये

 

कभी बिन पिये रही…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 8, 2015 at 1:12pm — 25 Comments

ग़ज़ल - बुलावा आज भी आता है, नदियों कोहसारों से ( गिरिराज़ भंडारी )

१२२२     १२२२     १२२२     १२२२२

कभी  आवाज  की  सूरत , कभी केवल  इशारों से

बुलावा  आज  भी  आता है , नदियों  कोहसारों से   

 

मैं प्यासा  तो  नहीं  हूँ पर  सराबों  से ये  पूछूंगा   

कि  बदली  क्यूँ  गुजरती ही  नहीं  है रेगजारों से

 

बड़ी   बेताब  सी  लहरें  बढ़ी  तो  हैं  ज़रा  देखें

वो  कहना  चाहती है क्या, अभी जाकर किनारों से

 

अभी  मायूसियाँ  छाई  हुयी हैं दिल में अन्दर तक

अभी कुछ दिन न आये घर , कोई कह दे बहारों…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 3, 2015 at 6:30pm — 19 Comments

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