मै कभी नहीं मरता
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आप बच नहीं सकते
उलझने से
ऐसा इंतिज़ाम है मेरा
फैला दिया है मैने मेरा अहंकार हर दिशाओं मे
हर दिशाओं के हर कोणों में
बस मैं हूँ , मैं
कहीं भी जायें, उलझेंगे ज़रूर
जब भी कोई उलझता है , मेरे मैं से
चोटिल करता उसे
तत्काल मुझे ख़बर लग जाती है , और तब
मुझे खड़ा पाओगे तुम उसी क्षण
अपने विरुद्ध
तमाम हथियारों से सुसज्जित
ये भी तय है ,
हरा नहीं पाओगे तुम मुझे
कोई नहीं हरा पाया आज तक
मैं मानता ही नहीं हार
मै मरता भी नहीं
मैं टूटता हूँ , टुकड़ों में , फिर
पिघलता है मेरा अस्तित्व
तरलता आती है , ठोस में
फिर मै वाष्प बन जाता हूँ
फैल जाते हैं मेरे कण कण सारे ब्रम्हांड में
और विलीन हो जाता सारा अहम्
उस परम में , परम के अहम् में
फिर से मुझ जैसे किसी एक में आने के लिये ।
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीया प्रतिभा जी , रचना को मान देने के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय गणेश बागी भाई जी , आपकी उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
परम सत्य को इस रचना में सफलता से समाहित किया गया है, बहुत ही खुबसूरत रचना आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, बहुत बहुत बधाई.
आदरणीय विजय भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय हरि प्रकाश भाई , प्रोत्साहन के लिये आपका दिल से आभारी हूँ ।
आदरणीय जितेन्द्र भाई , सराहना के लिये बहुत शुक्रिया ।
आदरणीय सोमेश भाई , एक विचार शृंखला के अनुमोदन के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय मिथिलेश भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका दिली शुक्रिया ।
आ. गुमनाम भाई , आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय दिनेश भाई , चिंतन के अनुमोदन के लिये आपका आभारी हूँ ।
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