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गिरिराज भंडारी's Blog (301)

ग़ज़ल - हर इक चेहरा बोल रहा वो लुटा हुआ है - गिरिराज भंडारी

22   22   22   22   22   22 ( बहरे मीर )

कोई किसी की अज़्मत पीछे छिपा हुआ है

कोई ले कर नाम किसी का बड़ा हुआ है

 

यातायात नियम से वो जो चलना चाहा

बीच सड़क में पड़ा दिखा, वो पिटा हुआ है

 

किसने लूटा कैसे लूटा कुछ समझाओ

हर इक चेहरा बोल रहा वो लुटा हुआ है

 

दूर खड़े तासीर न पूछो, छू के देखो

आग है कैसी ,इतना क्यूँ वो जला हुआ है

 

चौखट अलग अलग होती हैं, लेकिन यारो

सबका माथा किसी द्वार पर झुका हुआ…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 20, 2016 at 8:30am — 14 Comments

ग़ज़ल - वो बयान से खुद साबित कर देते हैं - ( गिरिराज भंडारी )

22   22  22   22   22   2



गदहा अन्दर हो जाये, तैयारी है

धोबी का रिश्ता लगता सरकारी है

 

वो बयान से खुद साबित कर देते हैं

जहनों में जो छिपा रखी बीमारी है

 

बात धर्म की आ जाये तो क्या बोलें ?

समझो भाई ! उनकी भी लाचारी है   

 

बम बन्दूकें बहुत छिपा के रक्खे हैं

अभी फटा जो, वो केवल त्यौहारी है

 

सरहद कब आड़े आयी है रिश्तों में

हमसे क्यूँ पूछो, क्यूँ उनसे यारी है ?

 

कभी फटा था…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 20, 2016 at 8:30am — 12 Comments

ग़ज़ल - पूछ दबी तो रो देते हैं , अच्छे अच्छे -- ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   22 ( बहरे मीर )

हम तो रह गये देख के मंज़र, हक्के बक्के 

सारे मूछों वाले निकले ब्च्चे बच्चे

 

अजब न समझें, पूँछ दबी तो कुत्ता रोया

पूछ दबी तो रो देते हैं , अच्छे अच्छे

 

परिणामों की आशा चर्चा से मत करना

केवल बातों के निकलेंगे लच्छे लच्छे

 

हर दिमाग में छन्नी ऐसी लगी मिलेगी

सारे बाहर रह जाते हैं , सच्चे सच्चे

 

इक चावल का दाना देखो, कच्चा है गर

सारे चावल तुम्हें मिलेंगे ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 12, 2016 at 9:20am — 20 Comments

दोहे - पाँच -- गिरिराज भंडारी

सर पर छत थी वो गयी , भीत भीत चहुँ ओर

रक्ष रक्ष मैं रेंकता , चोर मचाये शोर

 

सबकी चिंता है अलग, सब में थोड़ा फर्क

सब कहते वो पाप है, वो जायेगा नर्क  

 

स्वार्थ सदा रहता छिपा, सब रिश्तों के बीच

लेकिन वह जो बोल दे, कहलाता है नीच

 

सबकी अपनी व्यस्तता, सब के अपने राग

सर्व समाहित सोच से , तू भी थोड़ा भाग

 

सब तक सीढ़ी है बना , पायेगा  अनुराग  

पत्थर को ठोकर मिली , रे मानुष तू…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 8, 2016 at 9:00am — 6 Comments

ग़ज़ल - रोज उल्टियाँ वैचारिक कर देने वालों -- गिरिराज भंडारी

22  22  22   22   22   22 – बहरे मीर

आज उठाये घूम रहे हैं जिनको सर में

वो सब पटके जाने लायक हैं पत्थर में

 

अपनी बीमारी को बीमारी कह सकते

इतनी भी ताक़त देखी क्या, ज़ोरावर में ? (ताक़तवर)

 

फेसबुकी रिश्ते ऐसे भी निभ जाते हैं

वो अपने घर में कायम, हम अपने घर में

 

रोज उल्टियाँ वैचारिक कर देने वालों

चुप्पी साधे क्यों रहते हो कुछ अवसर में ?

      

जब समाचार में गंग-जमन का राग लगे, तुम 

मन्दिर-मस्ज़िद खेल…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 6, 2016 at 8:27am — 8 Comments

एक वैचारिक रचना --'' भीड़ '' ( गिरिराज भंडारी )

एक वैचारिक रचना --'' भीड़ ''

********************************

व्यक्तियों के समूह को भीड़ कह लें  

अलग अलग मान्यताओं के व्यक्तियों का एक समूह

जो स्वाभाविक भी है

क्योंकि मान्यता व्यक्तिगत है

 

पर भीड़ विवेक हीन होती है

क्योंकि विवेक सामोहिक नही होता

ये व्यक्तिगत होता है

हाँ , समूह का उद्देश्य एक हो सकता है , पर

प्रश्न ये है कि क्या है वह उद्देश्य  ?

 

भीड़ हाँकी जाती है

भेड़ों की तरह

गरड़िये के…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 4, 2016 at 9:23am — 6 Comments

गज़ल - दाग़ सभी के कुर्ते में -- ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22  22  2

.

मेरा ओछा पन भी उनको झूम झूम के गाता है

जिन शेरों में कुत्ता –बिल्ली, हरामजादा आता है

 

वफा और समझ का मानी एक कहाँ दिखलाता है

रख के टेढ़ी पूँछ भी कुत्ता इसीलिये इतराता है

 

खोटे दिल वालों की नज़रें, सुनता हूँ झुक जातीं हैं

और कोई बातिल सच्चों में आता है, हकलाता है  

 

वो क्या हमको शर्म- हया के पाठ पढ़ायेंगे यारो

जिनको आईना भी देखे तो वो शर्मा जाता है

 

सबकी चड्डी फटी…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 4, 2016 at 7:30am — 18 Comments

ग़ज़ल -है फर्क बहुत मेरे तेरे गुलज़ारों में -( गिरिराज भंडारी

22   22   22   22   22   2   ( बहरे मीर )

है फर्क बहुत मेरे तेरे गुलज़ारों में

महज़ साम्य है विज्ञापित दीवारों में

 

तुम अच्छाई खोजो इन हत्यारों में

हम भी खुशियाँ खोजेंगे इन हारों में

 

कहीं खून से होली खेली जाती है

कहीं दूध है प्रतिबंधित त्यौहारों में

 

पत्थर होगा वो तुमने जो घर लाया  

मोम कहाँ मिलते हैं इन बाज़ारों में

 

फुट पाथों को तुम भी रौंदोगे इक दिन

हो जाती है यही तेवरी कारों…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 29, 2016 at 8:30am — 6 Comments

दो कुन्डलिया -- गिरिराज भंडारी

1- नाम वरों में छुप रहे

नामवरों में छुप रहे , सारे गलती बाज

सच के आगे किस तरह , मची हुई है खाज

मची हुई है खाज , खून उभरा है तन में

लेकिन कोई लाज , कहाँ कब दिखती मन में

सत्य गिनेगा नाम , कभी तो जानवरों में

आज छिपालो झूठ, किसी का नामवरों में

****************

2- गिरगिट मानव देख

धोती में अपनी कभी , नही देखते दाग

और लगाते हैं सदा , अन्य वसन में आग

अन्य वसन में आग , लगाते हैं वो सारे

जिनको डर है सत्य,  कहीं ना उनको…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 28, 2016 at 7:00am — 16 Comments

दो वैचारिक अतुकांत --1- टूटता भ्रम और 2-मिसाइलें

1-    टूटता भ्रम

धराशायी हो जायेंगी आपकी धारणायें ,

छिन्न- भिन्न- सा होता प्रतीत होगा आपको

आपके रिश्तों का सच

 

एक बार , बस एक बार

उस झूठ के खिलाफ खड़े हो जाइये

डट कर चट्टान की तरह

जिसे बहुमत ने सच माना है

 

टूट जायेगा आपका भ्रम  

आपके चारों तरफ भी भीड़ होने का

अपने पीछे अचानक प्रकट हुये शून्य को देख कर

 

ये बात और कि लड़ाइयाँ केवल इसीलिये नहीं लड़ी जातीं

कि , हम…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 27, 2016 at 6:30am — 17 Comments

गज़ल - गाँव अगर मेरा है तो तेरा भी है ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22  2    

गंग-जमन मिल जायें ये इच्छा भी है

बम-बन्दूकें लेकर वो बैठा भी है

 

ठक ठक करते रहना पड़ता है, लाठी

अब शहरों मे सापों का डेरा भी है

 

सूरज की चाहत पर मर जाने वाला

घुप्प अँधेरों के रिश्ते जीता भी है  

 

जिसे मंच ने कल नदिया का नाम दिया

क्या सच में उसमें पानी बहता भी है ?

 

बेंत नुमा हर शब्द शब्द है झुका झुका

अर्थ मगर उसका ऐंठा ऐंठा भी है   

 

तू भी तो कुछ…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 25, 2016 at 8:00am — 17 Comments

ग़ज़ल - कहीं भटका तो नहीं देख कारवाँ अपना ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   22 

वुसअतें दिल मे समा जायें तो जहाँ अपना

वगरना खून का रिश्ता भी है कहाँ अपना

 

अहले तक़रीर की आतिश बयानी तुम ले लो

रहे जो सुन के भी ख़ामोश-बेज़ुबाँ, अपना

 

ये कैसा रास्ता है सिर्फ अँधेरा है जहाँ

कहीं भटका तो नहीं देख कारवाँ अपना

 

फड़फड़ा कर मेरे पर बोलते यही होंगे

ये ज़मीं सारी तुम्हारी है , आसमाँ अपना

 

इसे नादानी कहें या कि कहें मक्कारी

समझ रहे हैं दुश्मनों को पासबाँ…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 22, 2016 at 8:50am — 21 Comments

ग़ज़ल - मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22

लगता है अब काला पैसा खेल रहा है

मुल्क हमारा इसीलिये तो झेल रहा है

 

वर्षो तक अंधों के जैसे राज किया जो

वो भी देखो प्रश्न हज़ारों पेल रहा है

 

धर्म अगर केवल होता तो ये ना होता

मगर धर्म से राज नीति का मेल रहा है

 

कैसे उसकी यारी पर विश्वास करूँ मैं

मुझ पानी से मिला नहीं, जो तेल रहा है

 

देखो चीख रहा है वो भी परचम ले कर

जो ख़ुद अपने ही निजाम में फेल रहा है

 

वो…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 20, 2016 at 9:00pm — 15 Comments

ग़ज़ल - डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो ( गिरिराज भंडारी )

2122   1122    1122   22 /112

.

तुम जो चाहो तो ये गिर्दाब, किनारा लिख दो

डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो

 

कैसे उस चाँद को धरती पे उतारा लिख दो

कैसे आँगन में हुआ खूब नज़ारा लिख दो

 

खटखटाने से कोई दर न खुले, तो दर पर 

बारहा मैने तेरा नाम पुकारा लिख दो

 

जंग अपनो से भला कैसे कोई कर लेता

ख़ुद को जीता, तो कहीं मुझको ही हारा लिख दो 

 

हो यक़ीं या कि न हो तुम तो लिखो सच अपना   

दश्ते…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 9:30am — 59 Comments

दोहा- ग़ज़ल (जिसकी जितनी चाह है, वो उतना गमगीन (गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22   22

बात सही है आज भी , यूँ तो है प्राचीन

जिसकी जितनी चाह है , वो उतना गमगीन

फर्क मुझे दिखता नहीं, हो सीता-लवलीन

खून सभी के लाल हैं औ आँसू नमकीन

क्या उनसे रिश्ता रखें, क्या हो उनसे बात

कहो हक़ीकत तो जिन्हें, लगती हो तौहीन   

सर पर चढ़ बैठे सभी , पा कर सर पे हाथ

जो बिकते थे हाट में , दो पैसे के तीन

 

बीमारी आतंक की , रही सदा गंभीर

मगर विभीषण देश के , करें और…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 9, 2016 at 7:30am — 40 Comments

ग़ज़ल - चाकू पिस्टल ही समझाओ, अच्छा है - गिरिराज भंडारी

22 22  22  22  22  2

तुम केवल परिभाषा जानो ,अच्छा है

और अमल सब हमसे चाहो, अच्छा है

 

देव सभी हो जायें तो , मुश्किल होगी

पाठ लुटेरों का भी रक्खो , अच्छा है

 

पत्थर जब जग जाते हैं, श्री चरणों से

इंसा छोड़ो , उन्हें जगाओ, अच्छा है

 

समदर्शी होता है ऊपर वाला, पर

छोड़ो भी , तुम काटो- छाँटो, अच्छा है

 

सूरज ,चाँद, सितारे, दुनिया को छोड़ो

चाकू पिस्टल ही समझाओ, अच्छा है

 

धड़ सारा कालिख में है…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 8, 2016 at 8:00am — 24 Comments

ग़ज़ल - पर हृदय में आज भी जीती चुभन है - गिरिराज भन्डारी

2122    2122    2122

जब हवायें चल रहीं हैं क्यों घुटन है

सूर्य है उजला तो क्यों काला गगन है

 

कल बहुत उछला था अपनी जीत पर जो

आज क्यों हारा हुआ बोझिल सा मन है

 

चिन्ह घावों का नहीं है पीठ पर अब

पर हृदय में आज भी जीती चुभन है

 

मन ललक कर आँखों को उकसा रहा था

कह रहा संसार पर दोषी नयन है

 

सत्य तर्कों में समाया है भला कब ?

तर्क झूठों को बचाने का जतन है

 

क्या हृदय-मन, सोच जीती है कहीं…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 3, 2016 at 8:54am — 12 Comments

ग़ज़ल - जो बच्चों में अभी बच्चा हुआ है ( गिरिराज भंडारी )

1222    1222   122 

जो भारी ही रहा, बैठा हुआ है

उड़ा वो ही जो कुछ हल्का हुआ है

 

ग़लत कहते हैं जो कहते हैं तुमसे

यक़ीं मरकर भी क्या ज़िन्दा हुआ है ?

 

ठहर जा गर्दिशे अय्याम दर पर

ये मंज़र दर्द का देखा हुआ है

 

फटेगा एक दिन बादल के जैसे

जो आँसू आपने रोका हुआ है

 

बुढ़ापा फिर न याद आ जाये उसको

जो बच्चों में अभी बच्चा हुआ है

 

न जाने कौन धोखे बाज निकले

सभी को है यक़ीं , धोखा हुआ…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 29, 2016 at 9:30am — 18 Comments

ग़ज़ल - हवादिस पूछने आते हैं अब मेरा पता मुझसे ( गिरिराज भंडारी )

1222        1222      1222        1222

न जाने बे खयाली में हुआ है क्या बुरा मुझसे

हवादिस पूछने आते हैं अब मेरा पता मुझसे

 

मुहब्बत हो कि नफरत हो , झिझक कैसी है कहते अब  

हया कैसी है डर कैसा , बयाँ कर दे, जता मुझसे

 

अगर इनआम देना है , कहीं से भी शुरू कर तू

सजा का वक़्त गर आये तो फिर कर इब्तिदा मुझसे

 

न कह मुझसे जलाऊँ मै चरागों को कहाँ, कैसे

जलाऊँगा , अभी ठहरो , मुख़ालिफ़ है हवा मुझसे

 

समझ पाते तो अच्छा…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 15, 2016 at 10:49am — 5 Comments

गज़ल -अगर ग़लत है जहाँ में कोई, तो वो मैं हूँ --- गिरिराज भंडारी

1212  1122  1212  22/112

छिपा के बाहों में रक्खा था तीरगी ने मुझे

नज़र उठा के भी देखा न रोशनी ने मुझे

 

थका थका सा बदन है झुके झुके शाने

परीशाँ कर दिया इस दौरे ज़िन्दगी ने मुझे

 

गली से उनकी जो निकला तभी जहाँ का हुआ  

उसी गली में ही रक्खा था आशिक़ी ने मुझे

नज़र में रूह की सच्चाइयाँ पढ़ूँ कैसे

सिखा दिया है वही इल्म, बेबसी ने मुझें

 

रही तो चाह मेरी भी, तेरे क़रीब आता

तुझी से कर दिया है…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 3, 2016 at 10:00am — 15 Comments

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