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Mirza Hafiz Baig's Blog – July 2018 Archive (1)

दर्द (लघुकथा)

दर्द फिर उठा है। दर्द बहुत तेज़ है। कहते हैं, दर्द का हद से गुज़र जाना दवा है। ऐ दर्द गुज़र जा आज अपनी हदों से तू। ज़रा मैं भी तो देखूँ तेरा दवा हो जाना।

दर्द सचमुच बड़ा बेदर्द है। वह सचमुच बढ़ता जाता है; अपनी हदों को पार करता हुआ। अब नही, अब नही.......। अब बर्दाश्त नही होता। लेकिन दर्द तो बेदर्द है। बढ़ता ही जा रहा है; बर्दाश्त की हदों को पार करता हुआ। अब लगता है, जैसे सिमट आया है एक ही जगह।

दिल!

आह, दर्द-ए-दिल। सिमट आता है एक ही मुकाम पर। लगता है जैसे दिल किसी शिकंजे में कसा…

Continue

Added by Mirza Hafiz Baig on July 23, 2018 at 1:00pm — 7 Comments

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