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ये तो बस कुछ पल होते हैं,
जब इतना वैचैन होते हैं,
और वो साथ नही ये जान,
हम तो बस मौन होते हैं।
होंठ विवश समझ,
चल पडती है लेखनी इन पन्नों पर,
कोशिश खुशी बाँटने की,
पर पन्ने बस दर्द बयाँ करते हैं।
भारत और रेल का जनरल डब्बा
भरी ठसी बोगी में अक्सर मेरा देश चला करता है,
जनरल के डब्बे में जीकर बचपन रोज पला करता है।
हो चाहे व्यवसाय दुग्ध का,
रोज रोज का ऑफिस…
ContinuePosted on January 3, 2014 at 11:00pm — 8 Comments
काँटे, काँटे क्यों बनते हैं,
बन सकते हैं जब वो फूल,
एक डाल पर एक रस पीकर,
कैसे बन जाते हैं शूल?…
ContinuePosted on May 4, 2012 at 8:30am — 7 Comments
दो चार दिनों का जीवन मेरा,
क्या पाया है मैंने अब तक,
मुझसे कोई क्या सीखेगा,
कितनी दुनिया देखी अब तक।…
ContinuePosted on May 1, 2012 at 10:03pm — 5 Comments
अरुणिम सूरज जिस दिन मुझसे शर्त लगा झुक जाएगा,
जिस दिन सपनों के कानों में कोई सर्द आह भर जाएगा,
उस दिन भारत को भेंट करेंगे कफन एक सो जाने को,
जिस दिन बहता शोणित अपना क्षार क्षार हो जाएगा।।
तब तक चुप कैसे हम हों जब तक छाती में गर्मी है,
जब तक स्वप्न बाँध पैरों में भावों में सरगर्मी है,
तब तक बेकल इंतजार करता…
ContinuePosted on April 28, 2012 at 8:30am — 6 Comments
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