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महर्षि वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीकि का जन्म

महर्षि वाल्मीकि के जन्म के बारे में बहुत भ्रांतियाँ मिलती है कोई कहता है कि उनका जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी के घर में हुआ। और उनके बड़े भाई महर्षि भृगु भी परम ज्ञानी थे। कहीं कहीं जिक्र आता है कि वह भील जाति से सम्बन्ध रखते थे जिन्हे आजकल की भाषा में चुढे अर्थात भंगी कहा जाता है| भंगी जाति के लोग आज तक उनको पूजते आ रहे है और उनको अपना आदर्श और भगवान मानकर उनका सम्मान करते है| इस जाति में उनका पालन पोषण हुआ| यह भी कहा जाता है कि वह जन्म से भील जाति के नहीं थे बल्कि वह प्रचेता ऋषि के पुत्र थे| इतिहास पुराणों में प्रचेता ब्रह्मा जी के पुत्र माना जाता है| बचपन में ही उन्हे एक भीलनी ने प्रचेता के घर से चुरा लिया था| जिस कारण उनका पालन पोषण इसी भील समाज में हुआ और अपने परिवार की विपरीत परिस्थिति होने कारण ही उन्ही खूंखार डाकू बनना पड़ा था| बाल्मीकि ने भी श्री राम दरबार में खुद को प्रेचता का ही पुत्र कहा है ना कि एक भील का| सच्चाई जो भी हो लेकिन यह तो निश्चित था वह एक ब्रहम ऋषि थे और श्री राम के जीवन की जितने सुंदर ढंग से जो व्याख्या की उससे बेहतर शायद ही कोई कर पाता|

महर्षि वाल्मीकि की पूर्व जन्म कथा

महर्षि वाल्मीकि के पूर्व जन्म की कथा बहुत ही ज्यादा प्रचलित है जिसमे कहा जाता है कि वह महर्षि बनने से पूर्व उनका नाम रत्नाकर हुआ करता था। रत्नाकर अपने परिवार के पालन के लिए दूसरों से लूटपाट किया करते थे। अपने रोजमर्रा के कार्यों में यूं ही उसका समय गुजरता था| कभी कभी तो इतनी ज्यादा स्थिति खराब हो जाती है कि उन्हे और उनके परिवार को भूखे पेट ही सोना पड़ता था| ऐसे ही जब वह अपने लूट पाट के कार्य के लिए घर से निकला तो उसकी भेट सप्त ऋषियों से हो गई और अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी की तरह रत्नाकर ने उन्हें भी लूटने का प्रयास किया तो तब ऋषियों ने उनसे पुछा कि हे रत्नाकर तुम यह सब कार्य क्यों करते हैं? इससे तुम्हें क्या मिलता है? इससे तो तुम पाप के भागी होओगे जिसका पश्चाताप करने के लिए तुम्हें जन्म पर जन्म लेने पड़ जाएंगे और तुम्हें कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं हो पायेगा| ऐसे तो तुम सदा सदा के लिए मोक्ष प्राप्ति से वंचित हो जाओगे और तुम्हारा कभी भी उद्धार नहीं हो पायेगा| ऋषियों की बात सुनकर रत्नाकर ने उत्तर दिया कि परिवार के पालन-पोषण के लिए ही वह यह सब करता है। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो सब भूखे ही रह जाएंगे तब भी तो वह अपने पर आस्तिक लोगो का पेट ना पालने के कारण पाप का ही भागी बनेगा| रत्नाकर की बात सुनकर ऋषियों ने कहा कि वह जो भी अपने परिवार के लिए अपराध कर रहे हैं और क्या वे सब भी उनके सबै पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे? ऋषियों की बात सुनकर रत्नाकर गंभीर हो गए और असमंजस में पड़ गए| शायद आज उनके जीवन में प्रकाश का सामना करने का दिन था| उनके दिमांग की सभी उलझने खुलनी शुरू हो गई|

सप्त ऋषियों की बात के उत्तर में रत्नाकर ने कहा क्यों नहीं होंगे आखिर में यह सब उन्ही के लिए ही तो कर रहा हूँ| रत्नाकर की बात सुनकर सभी ऋषि हंसने लगे और उन्होने कहा कि क्या कभी आपके परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हें ऐसा कहा है कि तुम जो भी अपराध करोगे हम उसमे समान भागीदार होंगे? या कभी उन्होने तुमसे कहा है कि तुम चाहे पाप से कमाओ चाहे सत्य धर्म पर डिगकर हम सब हर परिस्थिति में तुम्हारा सहयोगी बनेने? ऋषियों की बात के उत्तर में रत्नाकर ने कहा इससे पहले उसने परिवार से इस तरह की बात कभी की ही नहीं| वैसे भी वह मेरा परिवार है मेरे अपने है अगर कल मैं किसी परिस्थिति में घिर भी गया तो वह साथ नहीं देंगे तो कौन देगा? ऋषियों ने कहा कि आज तुम यही बात जाकर अपने परिवार के हर सदस्य से पूछो कि मैं जो भी पाप कर रहा हूँ क्या तुम लोग मेरे उन सभी पापों के समान भागीदार बनोगे? रत्नाकर ने कहा अच्छा तो मुझसे से बचने के लिए तुम यह सब कर रहे लेकिन तुम मुझसे बचकर भाग नहीं सकते| तब ऋषियों ने कहा नहीं हम जब तक यहीं रहेंगे तब तक तुम वापस लौटकर नहीं आओगे| हमारा यकीन करों हम सत्य धर्म का पालन करने वाले सप्त ऋषि है और सदैव ईश्वर की भक्ति में लीन रहते है तुम हम पर पूर्ण विश्वास कर सकते हो| रत्नाकर को उन पर विश्वास नहीं होता ऋषियों ने कहा अगर तुम्हें हम पर विश्वास नहीं है तो तुम हमें यहीं किसी पेड़ से बांध कर जा सकते हो| रत्नाकर को उनकी यह युक्ति पसंद आई और उसने सभी को एक पेड़ से बांधा और अपने ऋषियों के द्वारा कहे गए सभी प्रश्नों को पूछने के लिए अपने घर गया|

महर्षि वाल्मीकि को सत्यता का ज्ञान

रत्नाकर ने घर पहुँच कर सबसे पहले अपने माता पिता से पूछा कि मैं घर परिवार को चलाने के लिए जितने भी पाप-पुण्य करता हूँ क्या आप लोग उसमे मेरा सहयोगी बनोगे पहले तो कोई भी उनकी बात समझ नहीं पाये जब रत्नाकर ने खोल कर अपने सभी पाप कर्मों को बताना शुरू किया कि कैसे लोगों को लूट-मार कर वह अपने परिवार का पालन पोषण करता है क्या कोई भी परिवार का सदस्य उसमे मेरा सहयोगी बनेगा अर्थात जब दंड का वक़्त आएगा तो क्या कोई उस दंड को मेरी ही तरह से अपने ऊपर लेने को तैयार हो जाएगा| रत्नाकर के माता-पिता उसे समझाते है कि पुत्र कोई भी किसी के पापों का भागीदार नहीं बनता हर इंसान अपने अच्छे बुरे कर्मों के लिए खुद ही जिम्मेदार होता है और उसी को उसके दंड को सहन करना पड़ता है| अपने माता पिता के उत्तर को सुनकर रत्ना कर हैरान हो जाता है उसके बाद वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों से एक एक करके पूछता है सभी एक स्वर में जवाब देते है कि तुम्हारे पापों के कारण हम क्यों दंडित हो हमने कब कहा कि तुम लोगो को लूट मार कर लाओ| परिवार का पालन पोषण करना तुम्हारा धर्म है उसे कैसे करना है यह तुम्हें सोचना है हमें नहीं| तुम्हारे किसी भी अधर्म के लिए हम क्यों जिम्मेदार हो? इस तरह से अपने परिवार के सदस्यों का जवाब सुनकर रत्नाकर भौच्चका रह जाता है उसकी आँखों पर पड़ा पर्दा सदा सदा के लिए उठ गया| रत्नाकर को अपनी गलती का अहसास होने लगा वह बहुत तेजी से उन ऋषियों के पास गया और उनके चरणों में पड़ गया| ऋषियों ने उस पर अपनी दया दृष्टि डालते हुए उसे उठाया और कि तुम आज से अभी से राम नाम का जप करों लेकिन रत्नाकर से राम शब्द नहीं बोला गया तब ऋषियों ने उसे उल्टा मरा-मरा कहने को कहा इससे जपने में उसे कोई दिक्कत अनुभव नहीं हुई और वह खुश होकर मरा-मरा का जप करने लगा| सभी ऋषि उसे आशीष देते हुए अपने मार्ग पर चले गए| ऋषियों की बातों से रत्नाकर के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया| तभी से वह राम भक्ति में खो गया|

रामायण की रचना

 कुछ दिनों तक मरा मरा शब्द का जप करने के बाद उसकी जबान से खुद-ब-खुद राम राम निकलने लगा| उसके बाद तो वह सदैव के लिए समाधिस्थ हो गए और उनकी समाधि जाने कितने वर्षो तक के लिए लग कि उनके शरीर पर दीमकों और चीटियों ने अपने घर बना लिए उनके शरीर पर बाल्मीक जमने के कारण ही उनका नाम बाल्मीकि पड़ा था| इस तरह रत्नाकर के भारी तप के कारण ईश्वर उन पर प्रसन्न हुए और उन्होने उन्हे भक्ति और ज्ञान का वर प्रदान किया| कालांतर में एक दिन जब वह वन में घूम रहे थे तो एक पक्षी के जोड़े को खुशी से चहकते हुए देख रहे थे तभी एक शिकारी ने नर पक्षी को अपने बाण से घायल कर दिया तभी उनके मुख से उस करुणा से भरे पक्षी की हालत को देख कर एक श्लोक निकलता है जो आगे चलकर रामायण का आधार बना था| वह श्लोक कुछ इस प्रकार था मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥ जिसका अर्थ है कि दुष्ट ने नर पक्षी को मार कर यह घृणित कार्य किया उसे जीवन में कभी भी सुख नसीब नहीं होगा| एक दिन मौका पाकर नारद जी उन्हे रामायण लिखने की प्रेरणा देते है और श्री राम के उज्ज्वल कीर्ति सुनाते है तब बाल्मीकि उनसे पूछते है आज के समय ऐसा कौन है जो मेरे इस काव्य की रचना के अनुकूल हो तब वह अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र श्री राम के बारे में बताते है इस तरह से श्री राम बाल्मीकि के समकालीन थे| नारद जी श्री राम के हर दुख दर्द और विजय गाथा का ऐसा वर्णन करते है कि महर्षि श्री राम के बारे में लिखने के लिए अपनी कलम को रोक ही नहीं पाते और रामायण नाम से एक ऐसा महा काव्य लिखने में सफल होते है जिसका तोड़ दुनिया में किसी के पास नहीं मिलता|

हनुमान जी द्वारा महर्षि वाल्मीकि को चिंता मुख्त करना

       कहीं कहीं यह भी वर्णित होता है कि ऋषि बाल्मीकि से पहले ही हनुमान ने हनुमद रामायण के नाम से एक रामायण लिख दी थी लेकिन यह रामायण उन्होने अपने नाखूनों से पर्वत के शिखर पर लिखी थी| उन्होने वह रामायण तब लिखी थी जब वह श्री राम विजय प्राप्त करने के बाद राज करने लगते है और हनुमान जी श्री राम से आज्ञा ले हिमालय पर कुछ समय के लिए तपस्या करने के लिए चले जाते है| अपनी तपस्या के बीच बीच में वह श्री राम के साथ गुजरे वन के हर पलों को हाल ब्यान करते हुए लिखते थे| उनकी हर वेदना को उन्होने बहुत खूबसूरती से पर्वत शिला पर अपने पैने नाखूनों से उखेरा था| कुछ समय बाद महर्षि वाल्मीकि ने भीवाल्मीकि रामायणलिखी और लिखने के बाद उनके मन में इसे भगवान शंकर को दिखाकर उनको समर्पित करने की इच्छा हुई। बाल्मीकि जब अपनी रामायण लेकर शिव के धाम कैलाश पर्वत पहुंच गए तब उन्हें हनुमान द्वारा लिखित हनुमद रामायण के बारे में पता चला। हनुमद रामायण को पढ़ने के बाद ऋषि बाल्मीकि निराश हो गए और बहुत दुखी हुए उनका दुख हनुमान जी से देखा ना गया| हनुमान जी ने उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होंने बड़े ही कठिन परिश्रम के बाद रामायण लिखी थी लेकिन आपकी रामायण देखकर लगता है कि अब मेरी रामायण उपेक्षित हो जाएगी, क्योंकि आपने जो लिखा है उसके समक्ष मेरी रामायण तो कुछ भी नहीं है। आपने श्री राम का जो जीवन चरित्र उखेरा है उसके समक्ष मेरे द्वारा चित्रित श्री राम का चरित्र कहीं नहीं ठहरता अत: मेरी सारी मेहनत पर पानी फिर गया|

       बाल्मीकि की बात सुनकर हनुमान जी कहा कि आप चिंता ना करे मैं अभी आपको चिंता मुक्त कर देता हूँ आप निश्चित हो जाये और जो मैं कहता हूँ ऐसा करों | तब वाल्मीकिजी की चिंता का शमन करने हेतु हनुमानजी ने पर्वत शिला पर लिखी अपनी रामायण वाले पर्वत को एक कंधे पर और दूसरे कंधे पर महर्षि वाल्मीकि को बिठाकर समुद्र के पास गए| बाल्मीकि सब कुछ अपनी आखो के समक्ष होते देख रहे थे कि कैसे बिना विलंब किए हनुमान जी अपनी स्वयं लिखी हनुमद रामायण को श्रीराम के चरणों का ध्यान करते हुए समुद्र में दुबों देते है| ताकि कोई भी उनके द्वारा लिखी रामायण को कोई पढ़ ना सके|

       हनुमानजी द्वारा लिखी रामायण को हनुमानजी द्वारा समुद्र में फेंक दिए जाने के बाद महर्षि बाल्मीकि बोले कि हे रामभक्त हनुमान, आप धन्य हैं| आप जैसा कोई दूसरा ज्ञानी और दयावान कोई और हो ही नहीं सकता जिसमे मेरी चिंता को दूर करने के लिए अपनी इतनी मेहनत से लिखी रामायण को पल भर में ही समुद्र में दुबों दिया केवल मेरे लिए। बाल्मीकि जी कहते है कि हे हनुमान, आपकी महिमा का गुणगान करने के लिए मुझे एक जन्म और लेना होगा और मैं वचन देता हूं कि कलयुग में मैं एक और रामायण लिखने के लिए जन्म लूंगा। तब मैं यह रामायण आम लोगों की भाषा में लिखूंगा। उस रामायण में मैं आपके गुणों को भी ऐसा बखान करूंगा की जनमानस श्री राम के प्रति आपकी अनन्य भक्ति को सदियों तक के लिए याद रखेगा| कहा जाता है कि वही बाल्मीकि जी संत तुलसीदास के रूप में कलियुग में अवतरित हुए थे और उन्होने राम चरित्र मानस लिख कर फिर से श्री राम की महिमा का गुणगान कर जनमानस तक पहुंचाने का कार्य किया था| इस कथा में कितनी सत्यता है यह तो कोई नहीं जनता लेकिन यह कथा लोक कथाओं में काफी प्रचलित है और जनमानस के हृदय में अपना एक विशेष स्थान रखती है|

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