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//ख़ुमारी है मय की गुलों की नज़ाकत
ख़ुदा की है ये दस्तकारी मोहोब्बत ।१।//
बेहतरीन मतला, और बहुत ही सुन्दर गिरह - वाह !
//लगे कोयले सा खदानों में हीरा
बना देती है नीच नीचों की सोहबत ।२।//
बहुत गहरी और सच्ची बात कही है धर्मेन्द्र भाई जी !
तुझे याद करता है जब मन का सागर
सुनामी है उठती मचाती कयामत ।३।
पहले मतले में "जब" का "ब" और "मन" का "म" एक ही वर्ग के होने की वजह से "जब मन" "जम्मन" की तरह पढ़ा/बोला जाएगा ! यह इल्म-ए-ग़ज़ल में एक दोष माना गया है ! इस तरफ ध्यान अवश्य दें, वैसे शेअर सुन्दर है !
//लिखा दूसरों का जो पढ़ते हैं भाषण
वही लिख रहे हैं गरीबों की किस्मत ।४।//
//बहुत खूब !//
//डकैती घोटाले क़तल तस्कारी सब
गई इनकी बन आज लॉकर सियासत ।५।//
दूसरे मिसरे में "गई इसकी बन" में शब्दों का क्रम सही नहीं है - कृपया ध्यान दें !
//सँवारूँ मैं कैसे नहीं रूह दिखती
मुझे आइने से है इतनी शिकायत ।६।//
हाय हाय हाय - क्या ग़ज़ब का ख्याल है - आफरीन !
//न ही कौम पर दो न ही दो ख़ुदा पे
जो देनी ही है देश पर दो शहादत ।७।//
क्या ज़बरदस्त संदेश है - वाह !!
//करो चाहे जो भी करो पर लगन से
है ऐसे भी होती ख़ुदा की इबादत ।८।//
वाह !
//नहीं हाथियों पर जो रक्खोगे अंकुश
चमन नष्ट होगा मरेगा महावत ।९।//
जियो धर्मेन्द्र भाई ! हाथी और महावत वाली बात दिल को छू गई !
//न जाने वो बुत थे या थे अंधे बहरे
मरा न्याय जब भी भरी थी अदालत ।१०।//
बहुत कडवी लेकिन सोलह आने सही बात ! लेकिन इस शेअर के पहले मिसरे में "बुत थे" और दूसरे मिसरे में "जब भी" में पहले शब्द का आखरी और दूसरे शब्द का पहला व्यंजन एक ही वर्ग का होने की वजह से उच्चारण का दोष आ रहा है !
न समझे तु प्रेमी तो पागल समझ ले
है जलना शमाँ पे पतंगों की आदत ।११।
क्या बात है !
मैं जन्मों से बैठा तेरे दिल के बाहर
कभी तो तु देगी मुझे भी इज़ाजत ।१२।
"कभी तो तू देगी !" - ये चार शब्द किसी गलत जानिब भी इशारा कर रहे हैं ! इस मिसरे का पहले मिसरे से सामंजस्य नहीं बैठ रहा, पहले मिसरे में बात साफ़ है कि आप दिल से बाहर हैं मगर दूसरे मिसरे में किस बात कि इजाज़त मांगी गई है - यह अस्पष्ट है ! थोडा ध्यान दें !
//नहीं झूठ का मोल कौड़ी भी लेकिन
लगाता हमेशा यही सच की कीमत ।१३। //
इतने बड़े दुखांत को बहुत ही सादगी से कलमबंद किया है आपने - मज़ा आ गया !
//मिलेगी लुटेगी न जाने कहाँ कब
सदा से रही बेवफा ही ये दौलत ।१४। //
बहुत सुन्दर !
//नहीं चाहता मैं के तोड़ूँ सितारे
लिखूँ सच मुझे दे तु इतनी ही हिम्मत ।१५।//
प्रेक्टिकल शायर की प्रेक्टिकल बात - वाह !
//ग़ज़ल में तेरा हुस्न भर भी अगर दूँ
मैं लाऊँ कहाँ से ख़ुदा की नफ़ासत ।१६।//
क्या कहने हैं धर्मेन्द्र जी - बहुत खूब !
बरफ़ के बने लोग मिलने लगे तो
नहीं रह गई और उठने की हसरत ।१७।
"बर्फ से बने लोग" - ये तशबीह बहुत नवीन है - बहुत बढ़िया !
योगराज जी पहले तो बहुत बहुत आभारी हूँ मैं आपका कि आपने एक ही वर्ग के अक्षरों के साथ साथ प्रयोग होने से हो रहे उच्चारण दोष से परिचित करवाया। वरना पढ़ते वक्त तो अजीब सा लगता था लेकिन मैं समझ नहीं पाता था कि ग़लती कहाँ पर है। दूसरे आपने एक एक शे’र पढ़ा और तारीफ़ की / सुझाव दिए उसके लिए मैं आपका तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। मैं जन्मों से बैठा वाला शे’र वाकई मुकम्मल नहीं है और इसके ग़लत अर्थ भी निकाले जा सकते हैं मैं इस बात से सहमत हूँ। गई इसकी बन में मुझे भी शब्दों का क्रम कुछ अटपटा सा लग रहा था। आगे से इन बातों का भी ध्यान रखूँगा। एक बार फिर से धन्यवाद।
धर्मेन्द्र जी,
एकदम सही मीटर...भुजंग प्रयात बहार..वाह वा !
हौसला अफ़जाई का शुक्रिया अरविंद जी।
बहुत ही सुंदर लिखा आपने...
कई सत्य उजागर कर दिए..
लिखने के लिए धन्यवाद
धन्यवाद भास्कर जी।
bahut badhia
आपने सराहा। मिल गया मनचाहा। धन्यवाद
धर्मेन्द्र भाई कमाल की ग़ज़ल कही है आपने, सभी के सभी शे'र अपने आप मे सवा शे'र , यदि The Best शे'र चुनने को कहा जाय तो यह मुश्किल कार्य है किन्तु मेरे सबसे पसंद का जो शे'र है वो है ..............
करो चाहे जो भी करो पर लगन से
है ऐसे भी होती ख़ुदा की इबादत,
बधाई इस सुंदर अभिव्यक्ति पर |
सच कहूँ बागी जी तो ये मेरे भी सबसे पसंद का शे’र है। आभार
लिखा दूसरों का जो पढ़ते हैं भाषण
वही लिख रहे हैं गरीबों की किस्मत ।४।
न ही कौम पर दो न ही दो ख़ुदा पे
जो देनी ही है देश पर दो शहादत ।७।
न समझे तु प्रेमी तो पागल समझ ले
है जलना शमाँ पे पतंगों की आदत ।११।
धर्मेन्द्र जी,
गजल की बहुत अधिक समझ मुझे नही है, फिर भी दिल को छूती सी लगती है, बेहतरीन
धन्यवाद राकेश जी, आपने पसंद की तो रचना ग़ज़ल हो गई।
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