परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 34 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है. इस बार का तरही मिसरा जनाब अनवर मिर्ज़ापुरी की बहुत ही मकबूल गज़ल से लिया गया है. इस गज़ल को कई महान गायकों ने अपनी आवाज से नवाजा है, पर मुझे मुन्नी बेगम की आवाज़ में सबसे ज्यादा पसंद है . आप भी कहीं न कहीं से ढूंढ कर ज़रूर सुनें.
पेश है मिसरा-ए-तरह...
"न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाये "
1121 2122 1121 2122
फइलातु फाइलातुन फइलातु फाइलातुन
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मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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बहुत शुक्रिया विन्ध्येश्वरी भाई जी
दो अशआर आपको ख़ास पसंद और अपनी खुशकिस्मती पर इतरा रहे हैं ....
आपने ग़ज़ल को जो मान दिया है उसके लिए आपका ह्रदय से धन्यवादी हूँ
मुझे सोगवार करके कहीं वो बहल न जाए
मेरे क़त्ल का इरादा कहीं फिर से टल न जाए.......वाह ज़बरदस्त
सभी शेर सवासेर ...आपकी ग़ज़लों में एक ताज़गी होती है और पढ़ते पढ़ते अपने आप एक मुस्कराहट खिल उठती है .....
यूं ही लिखते रहिये ..........हार्दिक शुभकामनाएं
सीमा जी,
ग़ज़ल को और मुझे आपने जो इज़्ज़त बख्शी है उसले लिए आपका मशकूर हूँ ...
मेरी ग़ज़ल आपकी के मुस्कराहट का सबब बनी
इससे अधिक क्या चाहिए ...
शुक्रिया
आदरणीय वीनस जी सादर, बहुत उम्दा गजल और मक्ता तो लाजवाब है. दिली दाद कुबुलें.
अशोक जी तहे दिल से मशकूर हूँ
तेरा नाम लब पे आना जो गुनाह है तो 'वीनस'
ये गुनाह करते करते मेरा दम निकल न जाए
क्या बात है .... खूबसूरत खयाल वीनस जी ... बधाई
सतीश जी हार्दिक आभार
शानदार गज़ल के लिए बधाइयाँ, आदरणीय वीनस जी
तेरा नाम लब पे आना जो गुनाह है तो 'वीनस'
ये गुनाह करते करते मेरा दम निकल न जाए
मुझे सोगवार करके कहीं वो बहल न जाए
मेरे क़त्ल का इरादा कहीं फिर से टल न जाए
इन दो शेरों पर बहुत-बहुत दाद स्वीकार करें.............
अरुण जी हार्दिक धन्यवाद ...
//शबे वस्ल का ये लम्हा कहीं हो न जाए ज़ाया
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए
तेरा नाम लब पे आना जो गुनाह है तो 'वीनस'
ये गुनाह करते करते मेरा दम निकल न जाए //
बहुत ही नाज़ुक खयालों से सजाया है
सारी की सारी गज़ल को।
विजय निकोर
विजय निकोर जी इस इज्ज़त अफ़्ज़ाई के लिए आपको तहे दिल से शुक्रिया
जब तक है गुंच-ए-दिल नायाब खिल न जाये
मौसम कहीं सुहाना देखो बदल न जाये
ये रात है सुहानी मौसम पे है जवानी
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाये
सुन लें ज़माने वाले इतनी है बस गुज़रिश
छूना नहीं कली को जब तक वो खिल न जाये
जो शाह था जहाँ का मुमताज़ उसके दिल की
दुनिया तो छोड़ जाये छोड़ा महल न जाये
गिरते नही कभी हैं नज़रों से पीने वाले
चश्म-ए-करम हो उसकी वो क्यूँ संभल न जाये
वादे में हो सियासत रग-रग में जो समायी
देखो जुबां से कैसे फिसल न जाये
हैं कीमती ये मोती बिखरे हैं सब जहाँ में
'नायाब' है जभी तक जब तक वो मिल न जाये
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