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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-95

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 95 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब जमील मालिक साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"हो मयस्सर तो कभी घूम के दुनिया देखो "

2122     1122      1122     22

फाइलातुन फइलातुन फइलातुन  फेलुन

(बह्र: रमल मुसम्मन् मख्बून मक्तुअ)

रदीफ़ :- देखो
काफिया :- आ (दुनिया, प्यारा, अपना, सवेरा आदि)
 विशेष: 

१. पहले रुक्न फाइलातुन को  फइलातुन अर्थात २१२२  को ११२२भी किया जा सकता है 

२. अंतिम रुक्न फेलुन को फइलुन अर्थात २२ को ११२ भी किया जा सकता है| 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 25 मई दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 26 मई  दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 25 मई  दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
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वैसे बड़ों के बीच बोलना अशोभनीय होता है, फिर भी मुआफ़ी के साथ कहूँगा कि मेरा मत आ. निलेश सर जी के साथ है।

  1. भाई दिनेश जी ये ओबीओ का पटल है, यहाँ कोई बड़ा छोटा नहीं,आपने अपन मत रखा ये बड़ी बात है,मुशायरे में गर्मी लाने के लिए ये चर्चा हो रही है,अंतिम फैसला तो थर्ड अम्पायर को लेना है ।

हौसला अफ़ज़ाई के लिए आपका बहुत शुक्रिया आदरणीय निलेश जी।

बहुत शुक्रिया आदरणीय निलेश जी। आगे सारी टिप्पणियाँ पढ़ी। यही कहना चाहूंगी कि जिस प्रकार आप लोग एक एक लफ्ज़ को अपना समय और तवज्जो देते हैं वाक़ई काबिले तारीफ़ है। शिक्षिका हूँ तो मिसाल भी वैसी ही दूंगी। आप लोग जैसे ललैंग्वेज की पुस्तिका का एक एक digit गणित केे परचे की भांति चेक करते हैं।आप सब के प्रयास को शत शत नमन। मैं सभी को दी गयी टिप्पणियों से बहुत सीखती हूँ। मेरी खुशकिस्मती जो मेरी ग़ज़ल पर आपने और समर कबीर sir ने इतना वक़्त दिया। आप सबकी दुआएं मिलती रहें।

वाह। अच्छी ग़ज़ल कही।

ए हवाओं मुझे कर देना......बढ़िया शेर। खास पसंद आया

बहुत आभार आदरणीय अजय गुप्ता जी

मेरे खयाल में शतुरगुरबा नहीं है | जनाब समर साहिब की बात सही है | मिसरे में उनके फ़साने समझने की बात हो रही है जिन होटों पर फीकी मुस्कान चिपकी है |

छल गई रेत मुझे, निकला ये सहरा देखो
आँख में सिमटा हुआ प्यार का दरिया देखो

साँझ को जब भी ढका स्याह अंधेरों ने मिल
तीरगी में है छिपा रोज़ सवेरा देखो

दोस्तो 'उसने' बनाई है बड़ी फुरसत से
हो मयस्सर तो कभी घूम के दुनिया देखो

काम औरों के न आया भले ही सागर वो
प्यास सबकी जो बुझाता, है ये दरिया देखो

हौसलों से है की हासिल ये महारत उसने
उड़ चला ऊँचे गगन में, ये परिंदा देखो

जो दिलासा देते थे ,आ रहे हैं अच्छे दिन
आज कहते हैं, चुनावी था ये जुमला देखो ।


मौलिक एवं अप्रकाशित

मोहतरमा मंजीत कौर जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन कुछ और समय चाहती है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेगा ।

दूसरे शैर का भाव स्पष्ट  नहीं है,ये शैर यूँ होना था:-

'सांझ को रोज़ ही ढकता है अँधेरा लेकिन

तीरगी में छुपा होता है सवेरा देखो'

गिरह उम्दा है ।

5वें शैर के ऊला मिसरे में रवानी नहीं है,यूँ कर सकती हैं:-

'हौसलों से ही महारत ये हुई है हासिल'

आख़री शैर का ऊला मिसरा लय में नहीं है, यूँ किया जा सकता है:-

'अच्छे दिन का जो दिलासा हमें कल देते थे'

आ. मंजीत कौर जी,
समर सर    सब कह चुके हैं ..
अच्छी ग़ज़ल हुई है जिसके लिए बधाई ..
चौथे शेर में तक़ाबुले रदीफ़ की सूरत बन रही है 
देखिएगा 
सादर 

अच्छा प्रयास हुआ

मुहतरमा मंजीत साहिबा, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं | जनाब समर साहिब के मशवरे पर अमल कीजियेगा |

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