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रंगों की दुनिया के जादूगर मकबूल फ़िदा हुसैन के निधन की खबर सुनकर लोग हतप्रभ रह गए. उनके जाने से कला -जगत बेनूर हो गया.यह कितनी बड़ी बिडम्बना है कि आधुनिक चित्रकला की विधा में पूरी दुनिया में भारत का परचम बुलंद करने वाला महान फ़नकार गैर मुल्क़ की ज़मीं में दफ़न हो गया.यहाँ अनायास बहादुरशाह ज़फर की पंक्तियाँ याद आ जाती है---- कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए. दो गज़ ज़मीं भी ना मिली कूये यार में.

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आदरणीय तिलकराजभाईसाहबजी,

आपके विचारों के मूल तक पहुँचने की यथासंभव कोशिश की मैंने. अपने अंतर में समोहित कर समझने का प्रयास किया. आपकी बातें और सलाह अपने ओबिओ परिवार में किसी सर्वमान्य अग्रज की जबान का हक़ रखती हैं. सो अवश्य-अनुकरणीय की श्रेणी में आती हैं. किन्तु इसके साथ ही मैं एक बात और मानता हूँ, कि, अग्रजों का भी एक धर्म होता है. तभी हम-आप अपने अनुजों के मन में अग्रजों के प्रति गरिमा का आग्रह रख सकते हैं.
 
अपना ओबीओ परिवार बुद्धिजीवियों का परिवार है. साहित्यानुग्राहियों का परिवार है. आँखें मूंदे मूढों का आचरण कतई अपेक्षित नहीं है. 
 
हम शिक्षित और मानसिकतः  विकसित प्रबुद्धों के साथ यही बड़ी कमी है कि हम आस-पास के लोगों के प्रति उलाहने का भाव विकसित कर लेते हैं. कुम्भ मेलों कि भीड़ हमें मूर्खों और दकियानूसों की भीड़ लगती है. नदी-पर्वतों के प्रति श्रद्धा-भाव अनपढ़ों के अनगढ़ व्यवहार लगते हैं. अपने विगत के संस्कार और उनपर आधारित सामाजिक सारोकार उपेक्षा का भाव जगाते हैं. इसी कड़ी में हैं अपनी श्रद्धा-सज्ञाओ के प्रति उपजा तिरस्कार का भाव. 
  

मुझे शत-प्रतिशत विश्वास है कि आपने अपने पोस्ट के पूर्व अपलोडेड प्रतिक्रियाओं को देखा होगा.

इस बिना पर यदि मैं कुछ जोडूँ तो यही कहूंगा कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उलाहने या कमतरी का भाव रखना, मैं नहीं समझता, परस्पर प्रगाढ़ सम्बन्ध के कारण उपलब्ध कराएगी.

 

 //..मरहूम मकबूल फि़दा ह़सैन एक कलाकार थे ऐसा कला पारखियों का विश्‍लेषण है, उन्‍होंने हिन्‍दू देवी देवताओं की कुछ विवादित पेंटिंग्‍स बनाईं ये एक अन्‍य वर्ग का मसला है जिसने शायद ही कभी यह समझने का प्रयास किया हो कि एक कलाकार क्‍या कहना चाह रहा हैं।//

 

किसी कला या साहित्य का लक्ष्य वस्तुतः है क्या ? आत्म-मुग्धता, स्वान्तः-सुखाय कूचन या जन के प्रति समर्पण? जन के प्रति दायित्त्व-बोध?  .. माननीय, समस्त प्रसूतियाँ आत्म-रंजन का ही परिणाम हुआ करती हैं. परन्तु उनके प्रसूत हो जाते ही रचनाकर्ता का उनपर से हक़ समाप्तप्राय हो जाता है. रचनाकार रचना-विशेष के प्रति आत्माभिमानी रह ही नहीं सकता. यह सदा से होता रहा है. सबके साथ होता रहा है. लेकिन, यह आप से कहना भी है क्या? 
 
क्या हुसेन साहब के अन्दर के कलाकार ने कभी यह महसूस करने की कोशिश भी की कि आम जन-मानस वस्तुतः उनसे अपेक्षा क्या रखता है? व्यवहार और चर्या में नाटकीयता किसी कलाकार की मार्केटिंग को कई गुना बढ़ा देती है. इस नाटकीयता में हुसेन साहब माहिर थे. हठ, अहंकार, श्रेष्ठता-बोध कलाकारों/साहित्यानुरागियों की कमियाँ रही हैं. फनीश्वरनाथ रेणू की कहानी 'पंचलैट' के उस गवदू पेट्रोमेक्स संचालक की तरह. फिरभी, उस गवदू को अपने सामजिक 'भी' होने का भान था.  हुसेन साहब से ऐसी अपेक्षा वर्ग-विशेष भर की चिल्ल-पों क्यों और कैसे मान ली गयी, भाईजी?
 
अपने जीवन के आखिरी पंद्रह-बीस वर्षों में हुसेन साहब भारतीय मानस, भारतीय-संहिताओं, व्यवस्थाओं के प्रति ठेंगे का भाव जगा बैठे थे. इसी प्रतिरोध का अक्स सामान्य जन-मानस के व्यवहार में परिलक्षित होता है, ऐसा प्रतीत होता है. वरना अस्सी के दशक में राजीव गांधी के नेतृत्व में आयोजित 'अपना उत्सव' उनकी कलाकृति का अत्युत्तम उदाहरण हैं. उनके प्रति जन-मानस का रोष कभी रहा नहीं, अलबत्ता कला-समीक्षकों और कला दीर्घाओं में उनकी बक-झक सदा चलती रहती थी. वह भी मार्केटिंग स्टाइल थी ऐसा मैं अभी भी मानता हूँ.

 

 

वर्ना वे सदा ही महाराष्ट्र प्रान्त के पंढरपुर के गावदू बेटे भर रहे, अपनी माँ की यादों को अपने सीने में दबाये माँ के लिए हूक भरते हुए. इसी  क्रम में यहाँ मैं एक बात जरुर साझा करना चाहूँगा, कितनों को अजीब सी लगे, माधुरी दीक्षित के प्रति प्रतीत होती उनकी दीवानगी जाती दुनिया की जिन्दा सूरतों में अपनी माँ की मुसलसल तलाश का पर्याय थीं. 

  

ज़िन्दगी और मिट्टी से जुड़ा हुआ ऐसा संवेदनशील चितेरा इतना संवेदनहीन व्यापारी या इतना अहंकारी बाजारू कब और कैसे हो गया? जिस सामान्य जनता से अपनी नजदीकी का पर्याय उसने आजीवन नंगे पाँव रहना माना हो, इतनी उथली चेतना का धनी कैसे हो गया? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसका सही-सही उत्तर वही दे सकते थे, जिनकी हम चर्चा कर रहे हैं.

 

आदरणीय योगराजभाई साहबसे मेरी इस विषय पर विषद चर्चा हुयी है. हम-दोनों ही इन्हीं विन्दुओं पर निरुत्तर थे. 

 

//क्‍या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने कर्मक्षेत्र को पहचानकर उसतक सीमित रहें और विवादित विषय उनके लिये छोड़ दें जिनकी रोज़ी-रोटी ही विवाद है।//

 

ये क्या लिख गए, आदरणीय? ऐसी कोई अपेक्षा मानसिक विकलांगता का आवाहन नहीं होगा? यह मानसिक भीरुता है, जिसके विरुद्ध एक साहित्यकार खड़ा होता है और आजीवन लड़ता है. 'कोई होहु नृप हमहीं का हानि..' की निर्जीव दशा में बने रहने का सन्देश है यह तो..!   .. नहीं आदरणीय, आप यह कदापि न चाहते होंगे. न लिखते समय ऐसी कोई मंशा रही होगीहां, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा इस लिखे को.

 

अंत में, इतना भर निवेदन है,  जिसकी तरफ अम्बरीष भाईसाहब ने भी इशारा किया है..रावण जैसा प्रकांड विद्वान उसके समय में कम ही हुए हैं. उसके ज्ञान के प्रति आदर-भाव स्वयं राम भी रखते थे. हम आज भी रावण रचित शिवतांडव-स्त्रोत्र का पाठ करते हैं. किन्तु रावण का महिमा-मंडन नहीं करते-फिरते. अब कोई मंशा-विशेष के तहत यह करने पर उतारू ही हो जाए तो यह एक अलग मुद्दा होगा. इस पर किया भी क्या जा सकता है? उसकी मानसिक और समस्त ज्ञान पराकाष्ठा उसके हठ, उसके नीच विचारों और कर्म के आगे गौड़ हो कर रह गयीं. 

 

सकारात्मक कर्म और उच्च विचार, इसके साथ-साथ जन-मानस की भावना के प्रति आदर, किसी कलाकार या साहित्यकार ही नहीं किसी अदने को भी कालजय प्रणेता का सम्मान दिलवा देते हैं. 

 मेरा निवेदन कुछ लंबा हो गया है, किन्तु आप कतई अन्यथा नहीं लेंगे ऐसी प्रार्थना है. इस विश्वास के साथ...  

 

 --सौरभ 

आपकी प्रतिक्रिया शब्‍दश: स्‍वीकार है हुजूर।

एक रुचिकर बात कहूँ कि शासकीय सेवकों के आचरण नियम में पहला नियम होता है 'प्रत्‍येक शासकीय सेवक अपने कर्तव्‍य के निर्वहन में अपने सर्वोत्‍तम विवेक का उपयोग करेगा, ऐसी परिस्थितियों को छोड़कर जब वह अपने वरिष्‍ठ के निर्देश पर कार्य न कर रहा हो.......' । एक बार इस पर बात चल निकली कि भ्रष्ट अधिकारी भी तो अपने सर्वोत्‍तम विवेक से कार्य कर रहा होता है अब वह विवेक ही दिशाभ्रमित हो तो क्‍या किया जा सकता है।

यही आचरएा नियम सब पर लागू होता है और कोई तथाकथित कलाकार इससे वंचित नहीं है, साहित्‍यकार भी नहीं।

'कर्मक्षेत्र को पहचानकर उसतक सीमित रहें' का उद्देश्‍य स्‍पष्‍ट है कि या तो इसे कर्मक्षेत्र बना लें या इसे नकार दें, अन्‍यथा जो कर्मक्षेत्र आपने निर्धारित किया है उसपर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

वाणी प्रकाशन या किसी और ने जो भी किया उसकी निन्‍दा कर हम स्‍वयं को संतुष्टि दे सकते हैं लेकिन वाणी प्रकाशन की सोच बदलने को जब तक अपना कर्मक्षेत्र न बना लें तब तक उनकी सोच तो वही रहेगी।  और इसका प्रमाण है वह हठधर्मिता जो उन्‍होंने उनके विपरीत टिप्‍पणियॉं हटाकर दर्शाई है। 

मूल प्रश्‍न रह जाता है अंत में हासिल क्‍या हुआ।

आदरणीय तिलकराज भाई साहब.

 

मैं आपका हार्दिक रूप से आभारी हूँ कि आपने मेरी शंकाओं का शब्दशः न केवल निवारण किया बल्कि पंक्तियों से निथरे हुए सत्य को अनुमोदित भी किया है. हम अपने दैनिक दायित्त्वों से तनिक परे हट कर ही ओबीओ या इसी तरह के मंचों पर सक्रीय होते हैं. 

 

हम सभी के पास और कुछ हो न हो एक संवेदनशील हृदय अवश्य है जो सत्य-शिव-सुंदर का साधक है, आग्रही है.   नूतन को स्वीकारता  है, पुरातन को पखारता है. और हमें सरस्वती-गणेश के आवाहन हेतु सुधारता है. इसी विश्वास और संबल के सिरे को पकड़ कर हम किसी असहज के सामने ठठ पाते हैं. 

  

मात्र व्यक्ति नहीं, व्यक्ति का आचरण भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है. यह अवश्य है कि हमें अपने बीच कोई देव/देवता नहीं, बल्कि मनुष्य ही चाहिए. इस ऊर्जस्वी  विचार के साथ कि यदि  मनुष्यों के रीढ़ है तो यह रीढ़ वैचारिक रूप से भी बनी रहे.. गलत को गलत और उचित को उचित कहने की क्षमता बनी रहे.

बाद-बाकी  नून-तेल-लकड़ी के लिए रोज़-रोज़ की जुगाड़ ने क्या-क्या नहीं हड़प लिए हैं हमसे.. 

 

सादर नमन ..

//हमें अपने बीच कोईदेव/देवता नहीं, बल्कि मनुष्य ही चाहिए. इस ऊर्जस्वी  विचार के साथ कि यदि  मनुष्यों के रीढ़ है तो यह रीढ़ वैचारिक रूप से भी बनी रहे.. गलत को गलत और उचित को उचित कहने की क्षमता बनी रहे.//

इन विचारों को मेरा सादर नमन .......:)


आदरणीय भाईसाहब, आपको मेरे विचार माकूल लगे, आपने उनका अनुमोदन किया है, मेरे लिये संतोष और आत्मविश्वास का कारण है.

आभार..

धन्यवाद आदरणीय ! आपका हृदय से आभार !
कोई भी कलाकार चाहे कितना ही योग्य क्यों न हो यदि उसके नैतिक मूल्यों गिरावट आ जाती है तो वह सम्मान का पात्र नहीं रहता .........या यों कहें वह कहीं का नहीं रहता ........इसी लिए एम एफ हुसेन को मरणोपरांत महिमा मंडित करने की कतई आवश्यकता नहीं .......रावण भी तो महा विद्वान था परन्तु उसके एक दुष्कर्म की वजह से ही उसका जो हश्र हुआ यह तो सभी जानते हैं ......इसीलिये आज उसके सारे कर्मों पर उसका दुष्कर्म ही भारी पड़ता है ........तथा चर्चा सिर्फ उसके दुष्कर्म की ही होती है .....
मैं आपकी बात से पूर्ण सहमत हूँ आदरणीय अम्बरीश भाई जी ! आज अगर सचिन तेंदुलकर, जिसे कि हम क्रिकेट का भगवान् मानते हैं - मैच फिक्सिंग में लिप्त पाया जाये तो क्या ये देश उसको कभी मुआफ करेगा ? ऐसी ही कुछ स्थिति एम् ऍफ़ हुसैन की भी है !
धन्यवाद आदरणीय प्रधान संपादक जी ! सच को सच साबित करने के लिए आपका हृदय से आभार !
मैं भी आपसे सहमत हूँ अम्बरीश भाई |
धन्यवाद भाई |
Jahan Tak main samajhta hoon koi bhi kala ya shiksha
hume dusro ka, unki bhavnao ka sammaan karna sekhate
hai na ke unki bhawno ko thes pahunchaane ke aagya
dete hai, agar aap kala ke drishti se bhi koi painting
ya sculpture banana chahte hain tab bhi aap ko is baat
ka bhakhoobi gyan hona chyee ke kahin hum aisa kar ke
kisi ko ahat to nahi kar rahe hain , agar koi samaj us
se ahat hota hai to hume aisa nahi karna chyee, per ye jaante hue bhi Husain sahab ne Maa Saraswati ke aise tasvir banyee, kya hussain sahab ko ye nahi pata tha ke sampoorn bharat main maa saraswati ko pooja jata hai, aur jo log hussain sahab ko is baat per samarthan dete hain main unse ye poochna chata hoon ke kya koi kalakaar unki maa behno ke nagan tasveer banana chahee to vo iski ejazat denge , agar nahi to maa sarswati ka apmaan aap hindustaani ho kar kaise bardasht kar sakte ho , aur iske baad bhi koi bardasht kar sakta hai to main samjhta hoon unlogo per maa saraswati ke kripa khabi hui he nahi...

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