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सुधीजनो,

दिनांक - 10 दिसम्बर’ 12 को सम्पन्न महा-उत्सव के अंक -26 की समस्त रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं और यथानुरूप प्रस्तुत किया जा रहा है.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिरभी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे. 

सादर

सौरभ


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सर्वश्री अम्बरीष श्रीवास्तव

दोहे
मार्गशीष से पौष तक, ऋतु आती हेमंत.
रहें स्वस्थ बलवान सब, करे दुखों का अंत.. (1)

थर-थर कांपें शीत में, मुँह से निकले भाप.
लगता भला अलाव ही, सबके संग लें ताप.. (2)

कड़-कड़ करती ठण्ड में, रूखा लगे शरीर.
भली गुनगुनी धूप में, दूर सभी की पीर.. (3)

अमृत बरसे ओस से, चंद्र देव का जोर.
छाये शीतल चाँदनी, पुष्ट सभी चहुँओर.. (4)

सौम्य काल हेमंत है, करे रसों में वृद्धि..
बढ़ती पाचन शक्ति है, तन मन में हो शुद्धि.. (5)

चना उड़द तिल गुड़ शहद, मेवा और खजूर.
सेवन इनका नित्य यदि, रहती सर्दी दूर.. (6)

चौलाई अदरक दही, अरहर सोयाबीन.
सूखा मेवा नारियल, जाड़े में लें 'बीन'.. (7)

मूंगफली गाजर भली, शकरकंद लें भोर.
स्वस्थ रखेगा आँवला, च्यवनप्राश का जोर.. (8)

तेल लेप उबटन करें, हजम करें तर माल.
भ्रमर कुमुदिनी मेल हो, मनमोहक सुर ताल.. (9)

चादर कुहरे की तने, देख निभाये रीति.
छुईमुई सी लाज को, अंग लगाए प्रीति..(10)

उनी स्वेटर शाल हों, दस्तानें लें हाथ..
बचें ठण्ड से मित्रवर, गर्म रजाई साथ. (11)

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धीरेंद्र सिंह भदौरिया

कुहासों ने घूंघट उतारा नही है,
अभी प्रियतम का इशारा नहीं है!

किरणों का रथ लगता थम गया है,
सूरज ने अभी पूरब निहारा नही है!

चारो दिशाओं में धुंधलके पड़े है,
पूनम के चाँद को गंवारा नहीं है!

चाँदनी रातें फीकी सी लग रही है,
मेरे प्रियतम ने दीप उजारा नही है!

हेमन्त जा रहा शिशिर आ रहा है,
बसंत ने अभी रूप संवारा नहीं है!

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डॉ. बृजेश कुमार त्रिपाठी 
 
हायकू
हेमंत ऋतु
सिहराती  बदन
ज़रा प्यार से

न गुद्गुदाओ
हंसी हंसी में कहीं
बीते न रैना

गर्म रजाई
देती प्यार का न्योता
अब तो आजा

हरजाई ये
धूप दिखाती ठाँव
मौन प्यार से

हेमंत ऋतु
इकरार की हितू
मान भी जाओ
दूसरी प्रस्तुति

कह-मुकरियाँ
शरद बीतते ही वह आता
सबके मन को वह हर्षाता
सी सी सब करते श्रीमंत
क्या वह साजन? नहि हेमंत ...१

मन में वह विश्वास जगाता
बड़े प्यार से वह सहलाता
भीति-गरम का करता अंत
क्या सखी साजन ? नहि हेमंत ...२

धूप भली सबके मन भाई
सुन्दर लगती खूब रजाई
मन में छिप कर बसता कन्त
सखि साजन वह? ना हेमंत ...३

उसके आने से मन सिहरे
लाख बिठाये जो भी पहरे
बजने लगते जब भी दन्त
समझो सखि आया हेमंत ...४

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अशोक कुमार रक्ताले
कविता      

नाहि बदरी नाहि बरखा,नाहि जल की धार,
कौन करता त्रण सिरों पर,नीर शब बौछार?
भाति मन हेमंत की रुत,फूल झूमें  डार,
और पहनाय धरती को, सुबह मोती हार/

वृद्ध ठिठुरे और बचपन,मांगता सम्भार,
निकल ना पाये दोनों हि,स्वेटर बिन बहार/
पैरों को अकडन जकडे,और घेरे वात,
तेल मालिश होव हर दिन,सुबह चाहे रात/

शीघ्र ढलती सांझ अब तो,लम्बी हुई रात,
छूटे न अब खाट बिस्तर,सुबह लागे रात/
भंवरे गुन गुन कर रहे,सोखते मकरंद,
शरद बीता आ गयी है,पुनः ऋतु हेमंत/

दूसरी प्रस्तुति

एक घनाक्षरी
झीनी झीनी लग रही ठंड भी इस मौसम,
फैली धूप गुन गुनी, मीठी सी लगती है/

फैलाता हरसिंगार, चादर श्वेत सबेरे,
फैली गंध गुलाब की, भीनी सी लगती है/

होती प्रकृति रंगीन,खिलते फूल रंगीले,
छुट्टी रवि के दिन की,उत्सव लगती है/

सारा सारा दिन बीते,वन बाग बगीचों में,
भीड़ लगी कानन में,उत्सव लगती है/

सवैया मत्तगयन्द  (भगण x 7 + गुरु गुरु)
शीतल सी लगती सुबहा अरु, रात हुई कुछ और नमी सी,
सूरज तेज हुआ कम और, लगे सुबहा जल बूंद जमी सी,
ताप दिखे नहि सूरज में अब, धूप लगी गुमनाम गुमी सी,
दौड़ लगाकर भाग चली, दुनिया लगती कुछ देर थमी सी/

तीसरी प्रस्तुति

रोला छंद (एक हास्य प्रयास)
हेमंत कि रुत आय,भली लगती है मक्का,
गेहूं  रोटी  छोड़, खांय काकी अरु  कक्का/
फुल्के ना अब भाय, स्वादिष्ट  गेहूं  रोटी,
पतरी ना को खाय, माँगते हैं सब मोटी//

सूरज छत पर आय,पत्नी  जा उपर बैठे,
छत पर बाल सुखाय,कौन अब रोटी थेपे/
उस पर हमें बुलाय,लिए सब कपडे मैले,
धो कर वहीं सुखाय,धुले सब कपडे गीले//

सांझ ढले सुलगाय,कोयला घर घर गृहणी,
उस पर थेपति जाय,रोटला हर घर गृहणी/
हेमंत कि ऋतु आय, दिन जाय पल में गाते,
सब  मंगल ही पाय, कटें जो  लम्बी रातें//

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अरुन शर्मा ’अनन्त’
ग़ज़ल
कारवाँ ठंडी हवा का आ गया है।
धुंध हल्का कोहरा भी छा गया है।। 1

राह नज़रों में समाती है नहीं अब।
कौन है जो रास्तों को खा गया है।। 2

पांव ठंडे, हाँथ ठंडे - थरथराते।
जान पर जुल्मी कहर बरसा गया है।। 3

पास घर दौलत नहीं रोटी न कपड़े।
कुछ नसीबा मुश्किलों को भा गया है।। 4

घिर रही घनघोर काली है घटा फिर।
वर्फबारी कर ग़ज़ब रब ढा गया है।। 5

बोलबाला मर्ज का फिर से जगा है।
सर्द सोया दर्द भी भड़का गया है।। 6
दूसरी प्रस्तुति

हाइकू
शीतल जल
रविकर किरण
हिम पिघल

आग जलाई
कहर निरंतर
ओढ़ रजाई

चौपट धंधे
हैं चिंतित किसान
छुपे परिंदे

गर्म तसला
मुरझाई फसल
सूर्य निकला

घना कुहासा
खिलखिले सुमन
शीतल भाषा

पौष से माघ
सुरसुरी पवन
पानी सी आग

शुरू गुलाबी
मानव भयभीत
शिशिर बाकी

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डॉ.प्राची सिंह

कुण्डलिया छंद

सतरंगी बिखरी छटा, है लावण्य अनंत,
प्रीति शंख के नाद सा, मन झूमे हेमंत...
मन झूमे हेमंत, धूप जब गुन गुन गाए,
गेंदा हरसिंगार, मालती मृदु मुस्काए...
ओस रचाए रास, भोर की नटखट संगी,
जगें प्रीत के स्वप्न, हृदय में फिर सतरंगी...

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कुमार गौरव अजीतेन्दु
सुमुखि सवैया

पड़े सरदी जितनी मन की बड़वाग्नि नहीं बुझने नर दो।
बने प्रिय भारत विश्वजयी तरुणों करनी कुछ वो कर दो।
घिरे गहरा कुहरा उसको धरके तम के गढ़ पे मढ़ दो।
छिपे छल को रिपु आड़ बने हिम उत्तर पर्वत से चढ़ दो॥

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लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला

कविता :
स्वागत करता हेमंत
शरद पूर्णिमा से आहट पायी
हेमंत ऋतु है सुहावनी आई ।
चंदा ने निशा में अमृत बरसाया
गुनगुनी धूप से मन हर्षाया ।
मन भावन सब अमृत फल आये
गाजर मटर मूली मैथी सब भाये ।
मूंगफली गुड पाक देख मुहँ ललचाया
सुंघा गाजर हलवा मुहं में पानी आया ।
 
पिंड खजूर खा अब खून बढाए,
मल तेल बदन पर बैठे धूप में,
विटामिन डी भरपूर मिल जाए
चव्यनप्राश से ताकत आ जाए ।
 
मन करता झट रजाई में जा दुबके
मधुर अहसास ले सो जाए भिडके ।
हेमंत की बिदाई करता शिशिर आता
स्वागत करता हेमंत सहर्ष ही जाता ।
कविगण को संदेशा  देता जाता,
शीघ्र बसंत आने को मै हूँ जाता ।
दूसरी प्रस्तुति

(दोहे)
शरद पूर्णिमा को लगे, हेमंत की आवत,
नानक पूनम को लगे, रजाई  की चाहत ।-----1

बदन न लूखा अब रहे, मल शरीर  पर तेल,
गुनगुनी धूप भी रहे, सुखद बदन का खेल ।---2

राख धुँआ पेट्रोल की, मानव लेता गंध,
सूरज की ये धूप ही, लेती उससे जंग ।-------- 3

दादी का नुस्खा करे, राम बाण सा काम
इसके आगे कुछ नहीं,बाम करे ना काम  ।---- 4

मन खिलते मुस्कान से, शीतल देख सुगंध,
स्वस्थ तन के लिए करे, तक्र का नित प्रबंध --5

गाजर मूली फूल फल, सब का है आनंद,
इनका सेवन जो करे, कमजोरी पाबंद ।-----    6

मौसम का सुज्ञान करे, जैसे अमृत पान,
मटर टमाटर सूप का, नित करना अब पान--- 7

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राजेश कुमारी

(चौका) 5,7,5,7, वर्ण के अनुसार छह चौके
अंत में एक तांका 5,7,5,7,7
(1)
कंपकपाती
हेमंत ऋतु आई
धूप सुहानी
सर्दी गुलाबी लाई
(2)
हेमंत ऋतु
मार्ग शीर्ष पौष में
ठंडी हवाएं
भर लाती कोष में
(3)
मूंग फलियाँ
सब के मन भाई
सर्द रतियाँ
चल औढें रजाई
(4)
लस्सी या छाछ
गर्म गुड हाथ में
मक्की की रोटी
साग खाओ साथ में
(5)
खुश किसान
नाचते बाल नन्हे
पकते धान
तैयार हुए गन्ने
(6)
ऊनी कपडे
स्वेटर औ चस्टर  
सर्दी जकड़े
पहन  मफलर
(7)
अच्छा  मौसम
लाये शुभ त्यौहार
बीहू पोंगल
सक्रांति की बहार
खुशियों की फुहार
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सुमन मिश्रा
कविता : हेमंत,,,,,ऋतू और मैं,,,


गरम गरम मूंगफली कडाहों में भुनती हुयी,,,
धनिया की चटनी,

गोभी के पकौड़े और चने का साग,,,
ब्यंजनो से भरी थाली हो न हो
मगर जो भी हो सब प्रिय लगता है,,,
आखिर ... ठंडी हलकी हलकी

मगर भूख से याद आया,
फटे कपड़ों से झाकता तन ,
उसके बढे हुए हाथ पर चंद सिक्के
पेट की आग शांत करे
या फटे कपड़ों के पैबंद

शीत लहर तो भेदती है गामा किरणों की तरह
काश चंद सिक्के और जीवन बचा सकते
अगले वर्ष क्या नन्हे और वृद्ध इन सड़कों पर
मुझे फिर से नजर आयेंगे ?
या फिर बंजारे बन .... कोई इनकी जगह ले पायेगा....
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सीमा अग्रवाल
गीत

सूखे अहसासों को बिखराते दिन
रिश्तों से घायल ,ये सिहराते दिन

छुप-छुप दालानों में
चंदा के तानो में
रातों में चुपके से
पत्तों के कानो में
ओस ओस दुःख अपना कह जाते दिन

चिड़ियों से घबराए
फूलों से कुम्हलाये
कोहरे की सडकों पर
गुमसुम चलते जाएँ
ताप प्रीत का खो कर पछताते दिन 

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वन्दना गुप्ता

एक उम्र बीती
मेरे यहाँ
पतझड को ठहरे
यूँ तो मौसम बदलते हैं
साल दर साल
मगर
कुछ शाखों पर
कभी कोई मौसम ठहरता ही नहीं
शायद
उन मे अवशोषित करने के गुण
बचते ही नहीं किसी भी मिनरल को
देखो तो
ना ठूँठ होती हैं
ना ही फ़लती फ़ूलती हैं
सिर्फ़ एक ही रंग मे
रंगी रहती हैं
जोगिया रंग धारण करने
सबके अपने कारण होते हैं
कोई श्याम के लिये करता है
तो कोई ध्यान के लिये
तो कोई अपनी चाहत को परवान चढाने के लिये
जोग यूँ ही तो नही लिया जाता ना
क्योंकि
पतझड के बाद चाहे कितना ही कोशिश करो
ॠतु को तो बदलना ही होता है
और जानते हो
मेरी ॠतु उसी दिन बदलेगी
जिस दिन हेमंत का आगमन होगा मेरे जीवन में ………सदा के लिये
ए ………आओगे ना हेमंत का नर्म अहसास बनकर
प्यार की मीठी प्यास बनकर
शीत का मखमली उजास बनकर
देखो ………इंतज़ार की दहलीजें किसी मौसम की मोहताज़ नहीं होतीं
तभी तो युग परिवर्तन के बाद भी
मेरी आस का मौसम नहीं बदला…………सिर्फ़ तुम्हारे लिये
क्योंकि
मैं नही बदलना चाहती अपनी मोहब्बत के मौसम को किसी भी जन्म तक
क्या दे सकोगे साथ मेरा ……अनन्त से अनन्त तक हेमंत बनकर
जानते हो ना………मोहब्बत तो पूर्णता में ही समाहित होती है
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अविनाश बागड़े
दो्हे

आई रुत   हेमंत सखी,शीत चलाये बाण .
हीम प्रदेशों में मिले,जलते हुए प्रमाण .
--
सुबह कोहरे से ढकी,शाम धुंधलका छाय .
ऐसा ये हेमंत है,निस दिन हमें सताय .
--
बर्फ ढंकी हैं चोटियाँ,सन्नाटों में गाँव।
सूरज भी आने लगा,दबे-दबे अब पांव .
--
कवी वृन्द लिखने लगा,बढ़-चढ़ कर हेमंत
ठंडी में वो मर गया, निर्धन का बस अंत।

दू्सरी प्रस्तुति

कुछ हाइकु
1.सर्दी की रातें
होंठ कंपकंपाते
पी नहीं आते !!!!

2.कोहरा घना
रास्ता हुआ लापता
चलना मना

3.हेमंत भाई
ठण्ड खिलखिलाई
ओढो रजाई
4.तापते आंच  
अलाव सी जिंदगी
अबला नाच
5.घोर गरीबी
साथ बदनसीबी
ठण्ड फरेबी
6.बर्फीली चोटी
हौसलों की परीक्षा
कसो लंगोटी
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सतीश मापतपुरी
गीत : फिर याद आने लगे

जाड़ में हाड़ जब कंपकंपाने लगे .
भूले मंज़र वो फिर याद आने लगे .

है गुलाबी - गुलाबी फिज़ा का बदन .
कोहरे के आलिंगन में सिमटा गगन .
पाँव से सर तक कम्बल जब आने लगे .
भूले मंज़र वो फिर याद आने लगे .

सर्द मौसम की साँसे हैं कितनी गरम .
ख्व़ाब में उनके होने का होता भरम .
धूप का रूप मन को रिझाने लगे .
भूले मंज़र वो फिर याद आने लगे .

ढोल बजने लगे फाग के ताल पर .
सरसो के फूल सोहे धरा - भाल पर .
जब क्षितिज पे गगन मंडराने लगे .
भूले मंज़र वो फिर याद आने लगे .

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शन्नो अग्रवाल
कविता : ‘हेमंत’


आई है खिजां फिर से
मौसम ठिठुर रहा है
बादल का ओढ़ कंबल
सूरज बिचर रहा है l

झड़ गये सभी पत्ते  
नंगे से सब शजर हैं
कंपित सी हैं हवायें  
अजीब सा मंजर है l

किरणें उतर के नभ से    
शाखों से छन रही हैं
निर्जीव से पेड़ों को  
जीवन सा दे रही हैं l  

हवा के तीखेपन में  
ज्यों बर्फ सी भरी है
बाहर जो निकलो होती
बदन में झुरझुरी है l  

वनजीव भटकते हैं  
बेचैन से निर्जन में
पांखें सिकोड़ पंछी  
उड़ते फिरें गगन में l

दूसरी प्रस्तुति

मौसम ने तेवर बदले      
शीत लहरियाँ छाईं
गजक-गुड़ और रेबड़ी
संग अपने हैं लाईं l

दादी-दादा आँगन में  
गजक-रेबड़ी खाते हैं      
बिना दांत राम जाने
कैसे मुँह वो चलाते हैं l

निकले मफलर, दस्ताने
टोपा कोट और शाल  
कड़क ठंड ने कर दिया  
सबका जीना मुहाल l  

उपले, लकड़ी, और पत्ते  
लाये सभी बटोर  
जले अलाव घर-बाहर  
कोहरा है हर ओर l

जब आती है जोश में
अंगारों के मंदी
गर्म राख में दाबकर      
भुनती हैं शकरकंदी l

कोल्हू से निकल रही  
गन्ने की रसधार
गुड़ और मूंगफली के
हैं ठेलों पर अंबार l

सरसों-मक्का-बाजरा      
लाये मौसम में रौनक
उड़द-दाल, साग-रोटी
सब खाते हैं छक-छक l

नींद देर से है खुलती    
सूरज भी है अलसाता      
होती है जिसकी मजबूरी
वो जल्दी से उठ जाता l

तीसरी प्रस्तु्ति
एक हास्य-कुण्डलिया


हुई गुनगुनी धूप जब, कान में डाल तेल
खाकर भुनी मूंगफली, पढ़न लगी नावेल
पढ़न लगी नावेल, कि आई थोड़ी झपकी    
मुन्ना रोने लगा, बहन गन्ना ले लपकी  
मम्मी भी गई जग, कान से गिर पड़ी रुई
‘’शन्नो’’ गुड़-गजक पर, वो जंग थी छिड़ी हुई l
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गणेश जी बाग़ी
घनाक्षरी छंद

ऋतु जो हेमंत की हो, दिन सप्ताहांत का  हो,
गुनगुनी धूप हो तो, आनंद आ जायेगा |

चाय गर तैयार हो, हाथ में अखबार हो,
गोभी के पकौड़े हो तो, आनंद आ जायेगा |

गंगा जी का किनारा हो, नाव एक सहारा हो,
लिट्टी चोखा खीर हो तो, आनंद आ जायेगा ।

फ़ुटबाल का मैच हो, या क्रिकेट का कैच हो,
"बागी" का जो साथ हो तो, आनंद आ जायेगा ||
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अरुण कुमार निगम
कवित्त (छत्तीसगढ़ी) :

(1)
शरद ला बिदा देके , आये हे हेमंत ऋतु
कँपकपासी लागथे , भुर्री ला जलावौ जी
धान के मिंजाई होगे,रबी के बोवाई होगे
नवा मूंगफल्ली आगे, भूँज के खवावौ जी |
कुसियार मेछरावै , बिही जाम गदरावै
छीताफर आँखी मारै, मन भर खावौ जी
खोखमा सिंघाड़ा आगे,जिमीकाँदा निक लागे
खावौ पियौ मौज करौ, सेहत बनावौ जी ||

[ भुर्री= अलाव, कुसियार = गन्ना, बिही जाम = अमरूद, छीताफर = सीताफल या शरीफा, खोखमा = कमल के हरे फल, जिमीकाँदा = सूरन ]

(2)
हेमंत ऋतु मा बने, हरियर भाजी आवै
मेथी चउलाइ लाल-भाजी ह मिठाथे जी
चना-भाजी मुनगा के,भाजी घलो मीठ लागे
सरसों के भाजी भाई,जम्मो ला सुहाथे जी |
बटरा गोलेंदा भाँटा, सेमी गोभी तरकारी
बंदा गोभी गाँठ गोभी,जीव भरमाथे जी
गाजर मुरई सँग, खीरा के सुवाद लेवौ
रखिया के बरी अउ बिजौरी बनावौ जी ||

[ मा = में, बने = अच्छी/ अच्छा, हरियर = हरी/ हरा, चउलाई = चौलाई भाजी, मिठाथे = स्वादिष्ट लगती है, मुनगा = सहजन, जम्मो ला = सबको, बटरा = मटर, गोलेंदा भाँटा = बड़े आकार का गोल बैगन जिसका भरता बनाया जाता है, मुरई = मूली, खीरा = ककड़ी, रखिया = सफेद हरा कद्दू जिसके गूदे से बड़ी बनाई जाती है, अउ = और ]

(3)
हेमंत ऋतु के ठंडी, कोन्हों कोट साजे हवैं
कोन्हों बंडी-पागा साज,ठंडी का भगावैं जी
स्वेटर पहिन घूमैं, कोन्हों मँद मौंहा झूमैं
गरीबहा कथरी - मा , जिनगी बचावैं जी |
कोन्हों मन तीर नहीं,कथरी के भी सहारा
अकड़ के ठंडी मा वो, प्रान ला गवावैं जी
रोटी कपड़ा मकान, मिले सबो मनखे ला
तज के सुवारथ ला ,कोन्हों आगू आवैं जी ||

[ कोन्हों कोट साजे = कोई कोट से सुसज्जित, बंडी-पागा = बिना बाँह की कोट और पगड़ी की तरह सिर पर बाँधा जाने वाला कपड़ा, मँद-मौंहा = शराब, कथरी = गुदड़ी, सुवारथ = स्वार्थ, आगू = आगे]


(4)
हमरेच देश मा हे, तीन ऋतु अउ कहाँ
शरद हेमंत अउ , शिशिर ला पाहू जी
बात मोर पतियावौ,, भाग खूब सहरावौ
छोड़ के सरग साँही,देश झन जाहू जी |
भगवान सिरजे हे, हिंद ला सरग साहीं
हिंद-माँ के सेवा कर, करजा चुकाहू जी
पइसा कमाये बर, झन छोड़ जावौ देश
अरुण के गोठ आज,सब्बो ला सुनाहू जी ||

[ हमरेच = हमारे ही, ला = को, पाहू = पाओगे, पतियावौ = भरोसा करो, सरग साँही = स्वर्ग की तरह, झान जाहू = मत जाओ, सिरजे हे = सृजन किया है, करजा = कर्जा, गोठ = बात, सब्बो = सबको , सुनाहू = सुनाओ]

दूसरी प्रस्तुति
हेमंत ऋतु के दोहे-

कार्तिक अगहन पूस ले, आता जब हेमन्त
मन की चाहत सोचती, बनूँ निराला पन्त |1|

शाल गुलाबी ओढ़ कर, शरद बने हेमन्त
शकुन्तला को ढूँढता , है मन का दुष्यन्त |2|

कोहरा  रोके  रास्ता  ,  ओस  चूमती  देह
लिपट-चिपट शीतल पवन,जतलाती है नेह |3|

ऊन बेचता हर गली , जलता हुआ अलाव
पवन अगहनी मांगती , औने - पौने भाव |4|

मौसम का ले लो मजा, शहरी चोला फेंक
चूल्हे  के अंगार  में , मूँगफल्लियाँ  सेंक |5|

मक्के की रोटी गरम ,  खाओ गुड़ के संग
फिर देखो कैसी जगे, तन मन मस्त तरंग |6|

गर्म  पराठे  कुरकुरे , मेथी  के  जब खायँ
चटनी लहसुन मिर्च की,भूले बिना बनायँ | 7|

गाजर का हलुवा कहे, ले लो सेहत स्वाद
हँसते रहना साल भर, मुझको करके याद |8|

सीताफल हँसने लगा , खिले बेर के फूल
सरसों की अँगड़ाइयाँ, जलता देख बबूल |9|

भाँति भाँति के कंद ने, दिखलाया है रूप
इस मौसम भाती नहीं, किसे सुनहरी धूप |10|

मौसम  उर्जा  बाँटता ,  है  जीवन पर्यन्त
संचित तन मन में करो,सदा रहो बलवंत |11|

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संदीप कुमार पटेल
ग़ज़ल

क्यूँ समझ पाया नहीं जज्बात मौसम सर्दियों का
कर गया फुरकत में लंबी रात मौसम सर्दियों का

इस ठिठुरती ठण्ड में भी सोजे दिल भड़का के देखो
आग को भी दे रहा है मात मौसम सर्दियों का

धुंध कुहरा इस कदर के गुम हुआ खुर्शीद भी लो
तब सभी से पूछता औकात मौसम सर्दियों का

आग ठंडी लग रही है जम गया है आज पानी
ला रहा है कैसे ये हालात मौसम सर्दियों का

"दीप" संसद में छिड़ी है अब बड़ी भारी बहस क्यूँ
जब नहीं तैयार करने बात मौसम सर्दियों का

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महिमा श्री

वो ठिठुरता हुआ
उकडू हो कर
बैठने के प्रयास में
सिकोड़े जा रहा था
अपने हाथ पैरों  को
बीच बीच  में
झाल -मुरी खरीदने आते ग्राहकों को
कंपकपाते हाथो से
नमक तेल मिर्च डाल
उसे मिलाता और उन्हें देते हुए
ठंड से सूखे पड़े
पपरीयुक्त होंठो से
सायास मुस्कुराने का  करता
प्रयास
मैं  देखती अक्सर उसे
उधर से गुजरते हुये
अखबार बिछाए
सर्द धरती की गोद में बैठा होता
मोटी फटी गंजी के साथ
सियन उघड़ी  कमीज पहने  
जो उसे कितनी गर्मी देती थी
भगवान् ही जाने

और फिर एक दिन
रूमानियत से भरी गुलाबी ठण्ड को
सहेजना चाहती अपनी यादों में
औ चल पड़ी बाजार को  
जब मैं खरीद रही थी
मूंगफली , गजक और रेवड़ियाँ
औ कर रही थी मनचाहा
मोल -भाव
तभी मैंने  कहते  सुना उसे
अपने एक फेरीवाले  संगी से
कल रात अलाव की चिन्गारी छिटकी
औ सारी बस्ती होम  हो गयी
सब राख हो गया
सर्द धरती तो गर्म हो गयी पर
अपना जीवन तो ठंडा हो गया
 गर्म कपड़ो में सर से पाँव तक ढकी मैं
अचानक  कांपने लगी पर
वो  आज गर्म जोशी  से
जोर -2 से
चिल्लाकर झाल- मुरी बेचने लगा
गुलाबी सर्दी जो
अभी बड़ी ही रूमानी लग रही थी
कठोर और बेदर्द  लगने लगी
******************************************************

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आदरणीय गुरुदेव
क्षमाप्रार्थी हूँ, अपने कम्प्यूटर में थोड़ी गड़बड़ी आ जाने के कारण इस आयोजन में सक्रिय होकर भाग नहीं ले पाया। समयाभाव रहता है सो अलग। अपनी रचना पर आप सहित सभी विद्वजनों तथा मित्रों के विचार पढ़कर हमेशा की तरह कुछ नया सीखा.....सभी रचनाओं को एक स्थान पर संकलित करने का श्रमसाध्य कार्य आपने पुनः किया है जिसके लिये आपको बधाई....

कुमार गौरव अजीतेन्दुजी, आप जैसे कर्मठ और संवेदनशील युवाओं से इस मंच को बहुत अपेक्षाएँ हैं. आप अपने सांसारिक और पारिवारिक कर्तव्यों का उचित निर्वहन करते हुए साहित्याकाश में भी किसी ज्वाजल्यमान नक्षत्र की तरह चमकें यही शुभकामना है. आवश्यक स्वाध्याय और दीर्घकालिक सतत अभ्यास ही साहित्य-सेवा का माध्यम हैं.

हार्दिक शुभेच्छाएँ

आदरणीय सौरभ जी, महोत्सव में सम्मिलित सभी रचनाओं को संकलित करने के इस श्रमसाध्य कार्य के लिए साधुवाद !

मंच पर आयोजनोपरांत प्रस्तुत कार्य की महत्ता से आप भी पूरी तरह भिज्ञ हैं, आदरणीय. आपका अनुमोदन मेरे लिए ऋतु-सम्मत औषधि है.

सादर

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी का शब्द "ऋतु सम्मत औषधि" बहुत अच्छा लगा 
और ऋतु सम्मत औषधि काव्य रूप में परोसने की शुरुआत आप द्वारा की गयी 
उससे ही हम सबको कलम चलाना और आसान हो गया, और सफल हो पाया ।
इसके लिए आप निसंदेह साधुवाद के पात्र है ।   

किसी एक विषय वह भी हेमंत ऋतु जैसे कठिन विषय पर  एक साथ इतनी रचनाए अलग अलग छंद काव्य में 

संग्रहित करने योग्य है । यह महनत करने हेतु आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी हार्दिक बधाई के पात्र है । साधुवाद  

कार्य-सम्पन्नता को अनुमोदन हेतु आपका हार्दिक धन्यवाद,आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी.

हेमंत ऋतू का आनंद उठाते हुए ....हेमत ऋतू के बारे में इतनी सारी रचनाएं एक साथ पढ़ना एक खूबसूरत सफ़र जैसा है...जो स्वास्थ्यवर्धक दोहों से शुरू हो,  कहीं प्रीत का एहसास बनता है, कहीं हंसाता है, कहीं भावनाओं की नमी में भिगाता है, कहीं कंपकंपाती सर्दी तो कहीं अंगीठी की गर्मी, तो कहीं लिटटी चोखे, मूंगफली , गाज़र के हलुए के साथ मुहं में पानी लाता है......वाह!  कहीं हंसाते-रुलाते तो कहीं बतलाते  इस आनंददायी सफ़र को सुलभ बनाने के लिए आपका यह प्रयास प्रणम्य है. इस संकलन हेतु हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ जी. सादर

आपने एकदम सही कहा डॉ.प्राची, मंच पर आहूत आयोजन के तीन दिन अपने परिवार में चल रहे किसी आयोजन से कत्तई कम नहीं होते. .. . पस्पर कहना, सुनना.. सुनाना, समझना.. समझाना और तथ्यों के लिहाज से लगातार जानकार होते जाना. सारा कुछ जैसे व्यष्टि से समष्टि की ओर के अग्रसरण का एक व्यवस्थित हिस्सा लगता है.

कार्य सम्पन्नता पर आपका अनुमोदन उत्साहवर्द्धक है, प्राचीजी.

मैं अभी आदरणीया सुमन मिश्रा जी की रचना तक पहुँच पाया हूँ गुरुवर
आपका ये प्रयास सकल ओ बी ओ समाज के लिए एक उपहार है
जिसको पाते ही सब काव्य के बहते झरने में गोते लगाने लगते हैं
और भावों से भीग भीग नित नयी काव्य कृतियाँ सीखते हैं
और उनमे कुछ नूतन प्रयोग करते हैं
सच कहूँ तो इस मंच से अनूठा कोई और मंच भी होगा ऐसा सोचने में भी संसय होता है
और ये साहित्यिक समाज एक दूसरे से यूँ जुडा  हुआ है जैसे हमारा सदियों से कोई रिश्ता रहा हो
ये समाज ऐसे ही फलता फूलता बढ़ता रहे यही भगवान् से प्रार्थना है
आपको इस काव्य संकलन हेतु सादर प्रणाम सहित बधाई गुरुवर
अपना स्नेह यूँ ही बनाये रखिये

भाई संदीपजी, आप एक संवेदनशील रचनाकार तो हैं ही, एक जागरुक पाठक-सदस्य भी हैं. आप सद्यः समाप्त हुए महा-उत्सव (अंक - 26) आयोजन का पृष्ठ प्रति पृष्ठ देखते जा रहे हैं यह जान कर अतीव प्रसन्नता हुई है.

भाईजी, एक बात और मैं आपके कहे में जोड़ना चाहूँगा.. कि, भले ही समग्रता में कई-कई नव-हस्ताक्षरों की रचनाओं से इस तरह के संकलनों का स्तर कई ’विद्वानों’ और तथाकथित ’साहित्य-मर्मज्ञों’ को सतही लग सकता है. लेकिन अदम्य उत्साह, सतत लगन और अपने उद्येश्य के प्रति समर्पित मंच के वातावरण में यही नव-हस्ताक्षर कल के व्यवस्थित और सर्वस्वीकार्य रचनाकार होंगे, यह अवश्य है. शर्त यही है कि उनकी इस मंच से दीर्घकालिक संलग्नता बनी रहे. कल यही संकलन स्थापित हो गये किसी नव-हस्ताक्षर की प्रयास-प्रक्रिया का आईना होंगे. क्षणिक लाभ के प्रति किसी नव-रचनाकार का आकर्षण तथा उसके मन में आत्ममुग्धता के क्षुद्र भाव का आप्लावन उसे उजबक भले बना दे, सम्माननीय कत्तई नहीं बनाता. 

विश्वास है, हम परस्पर एक दूसरे से सीखने की परंपरा का अनुपालन करते रहेंगे.

शुभ-शुभ

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