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मोहतरमा जानकी वाही साहिबा , रंग पर आधारित अच्छी लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
बहुत सुंदर प्रस्तुति ,जानकी जी। गले पड़ा ढोल बजाने की बजाए नीरज उस पर चोट कर रहा है , कभी तो बहरे समाज को उसका दर्द ढोल के माध्यम से सुनाई देगा।
एक यही तो आशा है जिसके सहारे लाखों नीरज जिन्दा हैं।
किसी एक का दर्द लाखों के दर्द का प्रतिनिधित्व करे , यही तो लेखन का मूल-मंत्र है।
बहुत खूब आ० जानकी जी, बेहद कसावट लिए हुए इस लघुकथा ने बहुत प्रभावित कियाI बदरंग और अर्थहीन जिंदगी का ढोल पीट पीट कर मज़ाक उडाना बेहद प्रभावशाली लगाI इस सुन्दर लघुकथा हेतु मेरी दिली बधाई स्वीकार करेंI
बेरोज़गारी के स्याह रंग को दर्शाती बेहतरीन लघुकथा।हमारे दिल पर भी ढम...ढ़मा..ढम की चोट लगी।अफ़सोस होता है शिक्षा पद्धति और डिग्री की अंधदौड़ को देखकर जो सिर्फ बेरोजगारों की फ़ौज खड़ी कर रही है।
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