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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-10 में स्वीकृत रचनाएँ

(1). श्री गणेश बागी जी 
लघुकथा : रंग

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“सुमन आई लव यू”
“आई लव यू सुमन......”
“जवाब क्यों नहीं देती ? आज मैं दसवीं बार कह रहा हूँ”
“रोहित मेरा रास्ता छोड़ो, गाँव से यहाँ मैं पढ़ाई करने आयी हूँ और यह प्यार मुहब्बत की बातें मुझे समझ में नहीं आती”
“पर मैं तुमसे सच्चा प्यार करता हूँ और तुमसे शादी करना चाहता हूँ”
“हम्म ! ठीक है, कल सोच विचार कर के मंदिर में आना, वही हम दोनों प्यार की कसमे खायेंगे”
“ठीक है”
“और हाँ... हम साथ में यह भी कसम खायेंगे कि शादी से पहले एक दुसरे को नहीं छूयेंगे”
सुमन मंदिर में इन्तजार करती रह गयी. रोहित ने अपना असल रंग दिखा दिया था.
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(2). सुश्री कांता रॉय जी
टॉमी

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"वाह ,शरद जी , आप तो पहुँचे हुए तीरअंदाज़ निकले ! मान गये उस्ताद ...! "
"मतलब ····? क्या उस्तादी की मैने ? "
"अरे , वही , अपनी कार्यकर्ता कुसुमा देवी जी वाली केस में जो तटस्थता दिखाई है आपने ... , ना सही का साथ दिया , ना ही गलत का ! यानिsss ... आपके तो अब दोनों हाथ में लड्डू है । "
"यह सब फालतू के चर्चे है , छोडिए , कोई दूसरी बात कीजिए ? "
"फालतू का चर्चा कहाँ ......, आप तो छा गये है ! सुना है कि, विरोधी पार्टी की वह कार्यकर्ता भी अब , आपके गुण गा रही है । "
"अब चुप भी रहिये मियाँ , यह राजनीति का रंग है। टिके रहने के लिए , वक्त के हिसाब से , बदलते रहने की यहाँ जरूरत होती है। "
"लेकिन , इन सबमें , आपकी अपनी कार्यकर्ता , कुसुमा देवी का क्या ? वह तो , आप पर भरोसा करती है । आपके इस तटस्थता से, क्या उन पर असर नहीं पडेगा ? "
"अरे वो ! ऊँह , कोई असर नहीं ..... वहाँ देखिए , दरवाजे पर बँधा मेरा टॉमी, दूध - रोटी और जरा सी पुचकार ....,
बस यही खुराक अपनी कुसुमा देवी का भी है । "
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(3). श्री समर कबीर जी
"ब्यूटी"
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द्वापर युग में। कजरारी अखियन वाले कृष्ण के बारे में गोपी अपनी सखी से कहती है - "सखि वो तो पीले हैं मगर मेरी आँखो में बस जाने के कारण नीले दिखाई दे रहे हैं ।"
कल युग में, साक्षी अपनी सखी श्वेता से -"श्वेता देख,मैंने अपनी आँखों में नीले लैंस लगाए हैं । आँखे कैसी लग रही हैं ?"।
श्वेता - "वाव ! व्हेरी नाइस !! राहुल तो नीले समंदर में डूब जाऐगा ।"
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(4). सुश्री नीता सैनी जी
रंगीन साडी
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"चुप हो जाओ बेटी ! कब तक रोओगी ? लो ये पहन लो , अब तो सारी उम्र ऐसे ही रहना है ।" एक बूढ़ी महिला ने उसकी और सफ़ेद साडी बढ़ाते हुए कहा ।
"सफ़ेद साडी , उफ़्फ़ !" सहसा पति के कहे शब्द उसके कानों में रस घोलने लगे , " वीरा ! तुम्हारे हाथों में खनखनाती , रंग - बिरंगी कांच की चूड़ियाँ और शोख चटक रंगीन कपड़ो में तुम कितनी सुन्दर लगती हो , हमेशा यूँ ही महकती चहकती रहा करो ।"
"नहीं माँ ! तुम ये साडी पहनो , मैं घर से तुम्हारे लिए पापा की पसंद की साडी लाया हूँ ।" मासूम अभिषेक ने साडी माँ की तरफ बढ़ाते हुए कहा ।
बच्चे की मासूमियत पर वहां उपस्थित स्त्री-पुरुष सभी नम आँखों से एक दूसरे की तरफ देखने लगे । तभी भीड़ में से एक कर्कश आवाज आई । "किसी स्त्री के जीवन के रंग उसके पति की मौत के साथ ही चले जाते हैं । यह तो अबोध बालक है , इसको जल्दी से सफ़ेद साडी पहनाओ देर हो रही है ।"
वीरा ने बालक के हाथ से साडी ली और पहनते हुए कहने लगी -- "पति के बाद , अब मेरी जिम्मेदारियां पहले से ज्यादा बढ़ गई हैं । सफ़ेद साडी पहचान है कटी पतंग की और मुझे ये पहचान नही चाहिए ।"
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(5). श्री रवि प्रभाकर जी
फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ब्लैक

"आज मैं तुम्हारा अंत करके दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए तुमसे मुक्त कर दूँगा।" धवल-श्वेत वस्त्रधारी ने काले लबादे वाले का गला पकड़ते हुए कहाI
"अरे अरे! यह क्या कर रहे हो? मैंने ऐसा क्या कर दिया कि तुम मेरी जान लेने पर उतारू हो गए?"
"समस्त मानव-जाति तुम्हारे कारण त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही है, अत: आज तुम्हें मेरे हाथों मरना ही होगाI" गले पर दबाव बढ़ाते हुए उसने कहाI
"किन्तु इसमें मेरा क्या दोष है? मैं तो केवल वही कर रहा हूँ जो मेरा कर्तव्य हैI"
"पाप को कर्तव्य बताते हो दुष्ट? उसके स्वर की कठोरता बहुगुणित हो रही थीI
"ठीक है भाई! तुम जीते और मैं हारा। बस मेरी एक आखिरी बिनती सुन लो।" उसने याचना भरे स्वर में कहाI
"नहीं ! आज मैं तुम्हारी कोई भी बात नहीं सुनूँगा।"
"मैं तुम्हारा स्वाभाव जानता हूँ, मेरी बिनती सुने बिना तुम मेरा अंत नहीं करोगे।" उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थीI
‘ठीक है, बताओ क्या कहना चाहते हो?"
"कभी सोचा है कि मेरे बगैर तुम्हारा क्या अस्तित्व है?"
"अर्थात?"
"अर्थात, यदि रावण था तभी राम थे, यदि कंस था तभी तो कृष्ण थे। यदि अंधकार होगा तभी तो प्रकाश की आवश्यकता होगी। यदि तुमने मुझे मार डाला तो तुम भी मेरी ही श्रेणी में ही गिने जाओगेI अत: याद रखो, जब तक मैं हूँ रहूँगा तभी तक इस दुनिया को तुम्हारी आवश्यकता रहेगी।"
सच्चाई सुनकर  अच्छाई के हाथों की पकड़ ढीली हो रही थी, किन्तु बुराई की आँखों में विजयी चमक आ रही थीI
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(6). श्री विजय जोशी जी
लालकिला

मैंने हर दौर को, इन आँखों से देखा है।
'मेरी गोद में बैठकर कईं बादशाहों ने दिग्विजय के सपने देखे है!'
'कई बेगमों की ख़ुशियों का साक्षी हूँ। मैंने डोलियों में बेटियां बिदा की हैं, और बहुओं का मंगल प्रवेश किया।'
" कई सूरमाओं के कारण कभी शर्म से सर झुका तो, कभी गर्व से सिरमोर्य हुआ है। मेरी पथराई आँखों ने जीवन के अनेक रंग देखे हैं। परन्तु मैंने यहाँ राग रंग से अलिप्त सदियाँ गुजार दी।"
'अंतिम मुग़ल शासक बहादूर शाह जफर की गलतियों पर भी मैं लाल-पीला नहीं हुआ।'
मैंने इसे अपनी नियति मान लिया।
कई दीवाने मेरी आज़ादी के लिए हँसते-हँसते सुली पर चढ़ शहीद हो गए।
परन्तु , ओ मेरे लाल ! मैंने उस शहीद लाल की बेवा के साहस से द्रवित हूँ। जिसे मेरे ही आँगन में आज शैलानियों को तमाशा दिखाकर, अपना जीवन यापन करना पड़ रहा। शहादती घोषणा में मिला, मकान डबल गोला सड़क लील गई। और मंत्री जी कहते है- "एक बार लाल किले से सम्मान कर तो दिया। और क्या चाहिए? " रोज हजारों शहीद होते हैँ। क्या जीवन भर सबको पालने का ठेका ले रखा है।"
सुनते ही, मैं दिल्ली का किला क्रोधाग्नि में रक्त-तप्त लाल हो गया हूँ। और तुम मुझे लाल पत्थरों का 'लाल किला' कहते हो।
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(7). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
"यह कैसा गिरगिट ?"

होस्टल में भले ही दोनों जिगरी दोस्त पढ़ाई-लिखाई और इबादत साथ में करते थे, किन्तु कुछ दिनों से हवा रुख बदल रही थी। आज शाकिर को पार्क में झाड़ियों के पीछे लैपटोप पर कुछ करते देखा, तो हैरानी के साथ आफ़ताब छिप कर उसकी गतिविधियों पर नज़र रखने लगा। शाकिर को आज ई-मेल पर जवाब देना था- 'हाँ' या 'न'! बात अपनों के भरोसे की थी । वह किस-किस का भरोसा तोड़े? वह अंतिम निर्णय ले नहीं पा रहा था ।
तभी झाड़ियों में से 'छपाक' की ध्वनि के साथ कुछ गिरा। शाकिर सतर्क हो गया। एक गिरगिट था, जिसके शरीर का रंग बदलने लगा था। ठीक उसी समय झाड़ियों में से झांकते हुए आफ़ताब को देखते ही शाकिर ने लैपटोप पीछे छिपा लिया।
"अरे आफ़ताब तुम! देखो ये गिरगिट कैसे रंग बदल रहा है?"- सकपकाते हुए शाकिर ने कहा।
लैपटोप छीन कर, स्क्रीन पर किसी आतंकवादी संगठन की ई-मेल देखकर आफ़ताब बोला-

"गिरगिट तो अपनी सुरक्षा के लिए या साथी को आकर्षित करने के लिए रंग बदलता है, लेकिन तुम .....!"
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(8). श्री सुधीर द्विवेदी जी
अपने-अपने रंग

दिल था कि धौकनी हुआ जाता था । आज हाईस्कूल का रिजल्ट जो आ रहा था । 'हे ईश्वर इस बार तो सुन ही लेना!' आँखे मूंदे मन ही मन प्रार्थना करते हुए शायद ही कोई देवी-देवता बचे हो जिनका आह्वाहन न किया हो उसने । सामने कम्प्यूटर पर डाटा लोडिंग की प्रतीक, डमरूनुमा वह आभासी घड़ी ,जितनी बार गुलाटी खाती.. उसका कलेजा मुँह तक आ जाता। पर हुआ वही जिसका डर था उसे। स्क्रीन पर अपने रोल न. के आगे नीले रंग में सेकेण्ड डिवीजन लिखा देख वह सिहर उठा।
'अब हर साल की तरह पूरे साल इस सेकेण्ड डिवीजन का भूत उसका पीछा करता रहेगा | कभी मम्मी की खीझ का रूप धर, तो कभी पापा की फटकार का चोला पहन। और वे पड़ोस वाली आन्टी सांत्वना देने के बहाने न जाने कितनी बार उधेड़ेंगी इस बात को।' सोचते –सोचते उसकी उलझन अब झुँझलाहट में बदलने लगी थी । न जाने कितनी और  देर तक वह उसी उधेड़बुन में फंसा रहता अगर विनय अंकल की आवाज़ न सुनाई देती |  वह चौंक उठा।
'अपनें बेटे की फर्स्ट आनें की मुनादी पीटने आये होंगे ! सोचते हुए उसनें परदे की ओट से बाहर वाले कमरे में झाँका ।
"भाई बहुत-बहुत मुबारक हो तुम्हे.." कहते हुए पापा विनय अंकल को बधाई दे रहे थे ।
"गोकुल का क्या हुआ?" विनय अंकल का प्रश्न सुन पापा थोडा रुके फ़िर झिझकते हुए बोले "हर बार की तरह सेकेण्ड डिवीजन आया है ।"
पापा को विनय अंकल के सामने इस तरह शर्मिंदा महसूस करते हुए देख मारे शर्म के उसका चेहरा काला पड़ने लगा।  घबरा कर उसनें आँखे मूँद ली। अब उसे अपना भविष्य अंधकारमय प्रतीत होने लगा।
तभी विनय अंकल की आवाज़ सुनाई दी " ये इतने सारे सुनहरे कप और शील्ड किसके है ? "
"हमारा गोकुल आर्ट कम्पटीशन में हर साल फर्स्ट आता है " इस बार पापा-मम्मी समवेत चहके।
पापा-मम्मी की आवाज में पहली बार अपने लिए फ़ख्र छलकते हुए सुन उसे लगा जैसे उसकी सेकेण्ड डिवीजन के डरावने नीले रंग को, आर्ट कम्पटीशन में उसके द्वारा जीते गए कप और शील्ड के सुनहरे रंगों ने अभी-अभी ढक लिया हो।
गहरी सांस लेते हुए उसने आँखे खोल दीं । उसके चेहरे पर मुरझाई मुस्कान  फ़िर से हरी होकर लहलहाने लगी थी ।
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(9). श्री पवन जैन जी

बेटी के हाँथ पीले करने के इन्तजार में बैठे शांतिलाल को कुछ खबर मिली तो उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उन्होंने बेटी को आवाज लगाई?और तड़ाक से एक थप्पड़ गाल पर रसीद कर दिया।
गुलाबी गाल,और डबडबाई आँखों ने प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया। "मेरा क्या कसूर है?"
" तू पार्टी में उन लड़कियों के साथ थी?"
"पापा न तो वे मेरी सहेलियाँ है,न ही मेरा उनसे कोई वास्ता है।आपको लाल, पीला होने की जरूरत नहीं है।"
"बेटा जरा सी भी ऊंच नीच हो गई तो..."
"पापा आप निश्चिंत रहें, मैने कोई सतरंगी सपने नहीं पाल रखे हैं।आपकी शिक्षा और संस्कार इतने गहरे पैठ किये हैं कि,मुझे कोई सुनहरा मृग ललचा ही नहीं सकता।"
पापा मैं सीता तो नहीं,पर लक्ष्मण रेखा मुझे दिखाई देती है।
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(10). सुश्री जानकी वाही जी
ढम ...ढमा...ढम डिग्री की

नीरज के हाथ ज़ोर -ज़ोर से ढोल बजा रहे हैं। उसके हाथ,आँखे और मन में चलने वाले अन्तर्द्वन्द में कोई सामंजस्य नहीं है। उसे ये सब बेरंग नज़र आ रहा है। दुखी मन को दुनियाँ की हर ख़ुशी रंगहीन लग रही थी । एम.ए.की अदद डिग्री होते हुए , सम्मानजनक काम नहीं मिला। थक हार कर चपरासी के पद के लिए आवेदन किया, पर सरकार ने उच्च शिक्षित लोगों के आवेदन देख विज्ञप्ति ही रद्द कर दी। वह अंदर से टूट गया। "अरे नीरज ! ज़ोर से हाथ चला, क्या सोच रहा है।" बैंड मास्टरचिल्लाया। भीड़ उन्मत्त होकर नाच रही थी।
नीरज ने ज़ोर से थाप दी ...ढम ...ढमा...ढम... मानों उस समाज़ और शिक्षा व्यवस्था पर चोट कर रहा हो ,जो उसे इज़्ज़त से ज़ीने के लिए दो वक़्त की रोटी न दिला सका।
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(11). डॉ वर्षा चौबे जी
रंग.....

"बुआ , तुम कितनी सुन्दर लग रही हो , इस लाल साड़ी मैं ! " - रितु का पुराना एलबम देखते हुए पूजा चहक कर बोली ,
"बुआ ऐसी ही साड़ी पहना करों न, क्यों हमेशा ये सफेद साड़ी पहने रहती हो,आपका मन नहीं होता रंगीन कपड़े पहनने का? "
"अब तो आदत - सी हो गई रे !, छह माह ही तो पहने रंगीन कपड़े ,तब से यही पहन रही | "
"फिर भी बुआ कभी तो मन होता होगा रंगीन साड़ी पहनने का| "
"नहीं "
वह अपने कमरे में चली गई| अलमारी से अपनी लाल -पीली साड़ियों में मुँह छिपाए रोए जा रही थी और सारे रंग उन आँसुओं में धुलकर धवल हो रहे थे|
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(12). सुश्री शांति पुरोहित जी
रंग

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'अब तुम भी अपना रंग दिखाओगी मुझे?
नही मेम साहब रंग नही, सच में मैं, अब काम छोड़ रही हूँ, मेरा मर्द अब सरकारी अस्पताल में ठेके में चपरासी की नौकरी लगा है। अब मैं भी आपकी तरह मेम बनकर घर पर बैठेगी ,बहुत अरसे से हसरत थी। मेम साहब mrs. ममता सिंह काम वाली बाई कृष्णा का बदला रंग देख कर हैरत में आ गयी, कुछ भी बोलते नही बना।
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(13). सुश्री सविता मिश्रा जी
रंग-ढंग

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आज फेसबुक पुरानी यादों को ताज़ा कर रहा था | अचानक चेतन को वे ,तस्वीरें दिखी जो उसने पांच साल पहले डाली थी | जिन्हे वह भूल ही गया था | अब ऐसी तस्वीरों की जरूरत ही कहाँ थी उसे |
कभी समाजसेवा का उस पर बुखार चढ़ा था, वह भी ईमानदारी से | माँ की
 सीख पर भी चलना चाहता था ," 'दाहिना हाथ दें तो बाएं को भी न पता चले' सेवा मदद वो होती हैं बेटा |" लोग नाम शोहरत और पैसा सब कमा रहें थे एनजीओ से | पर चेतन तो अपना पुश्तैनी घर तक बेच किराये के मकान में रहने लगा था | बीनू एक स्कूल में शिक्षिका बन गयी थी वरना...|
कभी-कभी बीनू खीझ कर बोल ही देती कि "यदि मैं शिक्षिका न बनती तो खाने को भी लाले पड़ जाते | भिक्षुओ की मदद करते-करते कहीं भिक्षुओं की कतार में खुद ही न खड़े हो जाना |"
चेतन झुंझला कर रह जाता | फेसबुक और ह्वाट्सएप न होते तो क्या होता मेरा ! यही तस्वीरें तो थी जिन्हें देखकर दानदाता आगे आये थे और पत्रकार बंधुओ ने अपने समाचार पत्र में जगह दी | चुपचाप मदद करने और दिखा कर मदद करने में बहुत फर्क होता है | काम से नहीं नाम से शोहरत और पैसा मिलता है | समाज सेवा तो तब भी कर रहा था अब भी कर रहा हूँ , बस जरा रंग-ढंग बदल दिया |
" कोई आया है , अरे कहाँ खोये हो जी ! "
" कहीं नहीं ! बुलाओं |"
"जी चेतन बाबू,ये एक लाख रूपये हैं | बस मुझे दान की रसीद दे दीजिये जिससे मैं टैक्स बचा सकूँ |
हाँ, हाँ क्यों नहीं मोहन बाबू अभी देता हूँ |

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(14). सुश्री नेहा  अग्रवाल जी
दलदल

विभु की दिन प्रति दिन बढ़ती शैतानी की आज तो हद ही हो गयी थी।विभु ने गुस्से मे अपनी छोटी बहन को अलमारी मे बन्द कर दिया था ।वो तो समय पर पता लग गया निशा को। वरना ना जाने क्या हो जाता आज। मन ही मन ठान लिया था।विभु की माँ निशा ने आज तो कड़ी सजा देनी ही हैं। गुस्सा औऱ कुछ गलत होने के डर ने कस कर पिटाई करवा दी फिर तो निशा सें विभु की।विभु तो सो गया रोते रोते पर अब उसके गालों पर अपनी उँगलियों के निशान देख तड़प उठी थी निशा। गुस्से पर ममता का रंग भारी पड़ने लगा था।
"कितनी गन्दी मां हूँ ,क्या कोई इतनी बुरी तरीके से मारता हैं अपने बच्चे को " दिल तड़प कर बोला निशा का ,
"अरे गलती पर ही तो दी थी सजा पर फिर क्यों पश्चाताप कर रही हो ।"
अब दिमाग भी वकालत पर उतर आया निशा का। कभी प्यार का रंग आ रहा था तो कभी गलत और सही का। सारे रंगो के इन्द्र धनुष मे उलझ गयी थी निशा।अचानक अपने गुरु की बहुत पुरानी बात याद आ गई निशा को ,
"अपने हाथों से अपना आपरेशन करना आसान नहीं होता।पर इसका यह मतलब नहीं कि जख्मों को नासूर बनने दिया जायें ।"
और फिर मुस्कुरा कर विभु के बालों को प्यार से सहला कर आत्मग्लानी के दलदल से बाहर आ गयी थी निशा।
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(15). सुश्री रश्मि तरीका जी
एक रंग ये भी ...

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"दीदी आ जाओ, अब आप भी मेहँदी लगवा लो ।" सविता ने बेटे की शादी में आई अपनी बहन को आवाज़ दी जो शादी की चहल पहल ,झिलमिल रोशनियों और रंग बिरंगे फूलों की सजावट को न जाने कब से निहार रही थी।
" अब ये तलाकशुदा भला किसके नाम की मेहँदी लगवाएगी ?" अपनी बहन की सास का यह कटाक्ष सुनकर कंचन एक पल रुकी लेकिन फिर मुस्कुराते हुए मेहँदी वाली के पास आकर बैठ गई।
" माँजी , मेहँदी तो प्यार के रँग का प्रतीक है और मेरा प्यार मेरे बच्चे हैं ना कि मेरा पति जो मेरी ज़िन्दगी बेरंग कर गया था ।" हाथ आगे बढ़ा दिया कंचन ने कहते कहते।
" वो तो लौट कर आया था ,तूने ही न आने दिया उसे अपनी ज़िन्दगी में वापिस ।"माँजी ने फिर ताना मारा।
"हाँ , लौटा था माँजी वो ।अपनी अय्याशियों से थक हार कर , एक लाइलाज बीमारी के साथ ।"
" हुँन्ह... ! समाज में रहना है तो पति का नाम ज़रूरी है। उसी से तो सब रँग और खुशियाँ जुडी हैं।
 " किस जमाने की बात कर रही हो दादी ? मासी सिर्फ इस लिए रंगों से नाता तोड़ लें कि वह तलाकशुदा हैं? नहीं मानता मैं इस बात को।मासी मेंहदी भी लगायेंगी और बाकी सिंगार भी करेंगी ।नहीं तो मैं शादी ही नहीं करूँगा।"मासी को बाँहों में भरते हुए सविता के बेटे ने दृढ़ निर्णायत्मक स्वर में कहा।
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(16). श्री तेजवीर सिंह जी
गुलाल
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सुजाता बाल विधवा थी! सात साल की थी, तीसरी कक्षा में पढ रही थी, तभी उसका विवाह एक सामूहिक विवाह सम्मेलन में कर दिया था! दो साल बाद  उसे बताया गया कि उसका पति नदी में डूब कर मर गया !उसे ज़बरन सफ़ेद कपडे पहना दिये!और साथ ही सख्त हिदायत दी गयी कि अब उसे केवल सफ़ेद वस्त्र ही पहनने होंगे! स्कूल भी छुडवा दिया!उसे कुछ भी समझ नहीं आया! पति, जिसे कभी देखा ही नहीं,उसके लिये इतना बलिदान!मगर उसका दुख बांटने वाला कोई नहीं था! उसका बचपन का एक मात्र सखा था विश्वास, वह भी सेना में भर्ती  होकर चला  गया था! सुना था कि वह होली पर छुट्टी लेकर गॉव आया है! सुजाता पर इतनी सारी पाबंदियां थी कि वह चाह कर भी उसे नहीं मिल सकती थी!  होली के दिन सभी हुडदंग में मस्त थे! सुजाता अकेली घर में थी!
"सुजाता, कहां हो तुम"! विश्वास की आवाज़ सुन सुजाता चौंक गयी!
"विश्वास तुम, इधर कैसे"!
"तुमसे होली खेलने"!
"नहीं विश्वास, यह संभव नहीं, मैं एक विधवा हूं, मेरे जीवन में अब किसी भी रंग को स्पर्श करना भी पाप है! मेरे लिये केवल सफ़ेद रंग ही मुफ़ीद है"!
"नहीं सुजाता, तुम समाज की कुरीतियों का शिकार हो , साथ ही तुम पर समाज की थोपी गयी सोच ने तुम्हें भ्रमित कर दिया है! ईश्वर ने तुम्हें सफ़ेद रंग इसलिये दिया है कि तुम इस पर पुनः नये रंग से, अपने जीवन की नयी इबारत लिख सको,क्योंकि सिर्फ़  सफ़ेद रंग पर ही दूसरे रंग चढते हैं"!
सुजाता आगे कुछ कह पाती उसके पहले ही विश्वास ने होली का  गुलाल सुजाता की मांग में सिंदूर के रूप में डाल दिया!
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(17). श्री सुनील वर्मा जी
स्वभाव

अलग अलग थैलियों मे रखे रंगो में सर्वश्रेष्ठ कौन विषय पर बहस हो रही थी। शक्ति का प्रतीक लाल रंग अपने स्वभाव अनुरूप अपनी शक्ति का विवरण दे ही रहा था कि काले रंग ने उसे 'खतरे का प्रतीक' भी बताकर चेताया। काले रंग की बात सुनकर लाल रंग के आत्म मुग्धता में डूबे अगले शब्द गले मे ही अटक गये। काले रंग का कहना था कि वह सबको बुरी नजर से बचाता है, इसलिए सर्वशक्तिमान तो वही हुआ न।
"काले रंग को तो अपशकुन भी माना जाता है।" सफेद रंग ने आँखे मटकाकर पूछा तो कोई जवाब न पाकर काला रंग भी चुप हो गया।
"मैं सफेद हूँ, शांति का प्रतीक। और शांति से बढकर कुछ नही होता।" सफेद रंग ने अपना महिमा मंडन करना शुरु किया ही था कि लाल रंग फिर बोला '"तुम तो शोक के भी प्रतीक हो।"
बहस और लंबी खिँचती उस से पहले ही हरे रंग ने कहा "हम सबका अपना अपना अस्तित्व है, इंसानों ने अपने स्वभाव का दोगलापन हमें भी दे दिया। अपनी खूबसूरती और श्रेष्ठता देखनी है तो वह देखो.."
सभी रंगो ने हरे रंग द्वारा बताई गयी दिशा में देखा। आँगन में बनी रंगोली में सजे सभी रंग मुस्कुरा रहे थे।
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(18). सुश्री रीता गुप्ता जी
जीवन के रंग

 दो बहनें,एक कोखजायीं वर्षों बाद मिलना हुआ. छोटी बहन की चकाचौंध देख बड़ी बहन की आँखें चुन्धियाँ गयीं. उसके ठाठ-बाठ और रंगीन जीवन को देख उसे ख़ुशी मिश्रित आश्चर्य हो रहा था. छोटी भी अपनी वैभव प्रदर्शनी में कोई कमी नहीं ही छोड़ रही थी, उसे महसूस हो रहा था कि सारे तीर निशाने पर लग रहें हैं. श्वेत-श्याम सी दीदी की जिंदगानी को फीकी करने हेतु वह अपने समृध ऐश्वर्यपूर्ण रहन-सहन के सारे पत्ते बिखेर चुकी थी. सुखों की पहाड़ पर बैठी वह अपनी बहन की निम्न स्तरीय जीवन शैली को मानों मुहं चिढा रही थी कि उसका पति जो कहीं बाहर गया था वापस आ गया. बड़ी साली उपस्तिथि से अनजान उसने अपनी पत्नी को आवाज दिया,
"देखो तुम्हे मंत्री जी के साथ कुछ दिनों के लिए सिंगापूर जाना होगा. इस बार उन्हें खुश कर लिया तो दिल्ली में फ्लैट पक्का"
अचानक पहाड़ी ढह गयी,उस टीले से लुढ़कते हुए छोटी के सारे रंग अचानक गडमड हो गए. श्वेत-श्यामल बड़ी ने देखा कि सारे रंग मिल कर काले हो गएँ हैं. उस काली बदबूदार आबो हवा में क्षण भर पहले चमकती बहन रंगहीन  निस्तेज हो धराशाही औंधे गिरी हुई है.
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(19). श्री सौरभ पाण्डेय जी
मनोदशा 

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रमा के दोनों बच्चों ने यों तो उन्हें सँभाल लिया था, वर्ना सक्सेना साहब का यों अचानक जाना उन्हें गहरे तोड़ गया था. छोटा बेटा उनके साथ ही नोयडा में रहता था, बड़ा भी सपत्नीक स्वीडन से आकर अपनी माँ के पास ही लगातार बना हुआ था. कई दफ़े उसने कहा भी था कि माँ, भले ही कुछ ही दिनों के लिए, उसके साथ स्वीडन चल चले. लेकिन रमा इस बंगले को अभी छोड़ना नहीं चाहती थीं. बेटे भी माँ की इस मनोदशा को अच्छी तरह से समझ पा रहे थे. तीन हफ़्तों के बाद दिनचर्या थोड़ी संयत हो चली थी. लेकिन जनवरी. का महीना, धरती पर इन दिनों में गोया लगन चढ़ जाता है. बालकोनी से लेकर बाहर लॉन तक किसिम-किसिम के रंग-बिरंगे फूलों ने धाक जमा रखी थी.
’बीबीजी, बाहर लॉन में बैठियेगा ? कुर्सियाँ निकाल दूँ ?’ - गुनगुनी धूप को देख कर हीरालाल ने पूरी संवेदना के साथ पूछा था.
रमा निर्लिप्त नज़रों से शून्य में कहीं देखती रहीं, फिर कहा - ’नाः, रहने दो.. अच्छा नहीं लग रहा है.’
’माँ इस बार सारे डालिये बड़े अच्छे आये हैं.. और देखिये, गुलदाउदियों ने तो पूरा कमाल ही किया हुआ है’ - छोटे ने माहौल को बनावटी ही सही, थोड़ा संयत करने की कोशिश की.
रमा ने कुछ न कहा. बस अदबदा कर खिल गये फूलों पर अपनी छिछली नज़रें फेंकती हुई वो अन्दर कमरे में आ गयी. बड़ा वहीं सोफ़े पर पसरा हुआ था.
’स्वीडन में अभी कैसा मौसम है नीलेश ?..’
’मौसम का क्या है माँ, इस बार खूब बर्फ़ गिरी है. सारा स्वीडन आजकल शफ़्फ़ाक़ रजाई में है ! ’  वह भी सहज बनने की कोशिश कर रहा था.
’हाँ हाँ.. चल बेटे, मैं भी तेरे साथ चलती हूँ.. कब निकल रहा है ? ..’
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(20). श्री रतन कुमार सिंह जी 
 *सतरंगी स्वप्न*


घर की छत पर चार महिलाएं अपने-अपने घर के काम-काज निपटा कर, गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुये बतियां रही थी। उनकी बातों से बेखबर रोशनी एक ओर बैठी हुई न्यूज़पेपर में डूबी हुई थी।
सहसा उसकी आँखों के कोनों की दृष्टि ने पाया की कमला मौसी उसकी ओर देखते हुये कह रही थी, "उस बेरंग बगियाँ का क्या फ़ायदा? जिसमें फूलों के रंग न सजे हो, जिसमें रंग बिरंगी तितलियों का इतराना न हो, भौरों का गुंजन न हो।"
तभी राधा चाची का स्वर गूंज उठा, " जीवन रंगीन से रंगीन, सतरंगीं हो उठता है, जब जीवन और घर परिवार में एक मासूम की किलकारियाँ गूँज उठती है।"
'हां, कह तो तुम सही रही हो, चाची और मौसी। लेकिन क्या करें? जब किसी की ज़मीन ही बंज़र हो, तो बगियाँ में न तो फूल खिलेंगे, न तितली-भौरें मंडरायेंगे।" आँखे तरेरते और कुटिल मुस्कान बिखेरते हुये रोशनी की जिठानी बोल उठी।
रोशनी को महसूस हुआ जैसे उसके कानों में पिघला शीशा उड़ेल दिया हो। पिछले पांच वर्षो में उसने और पति रमेश ने क्या क्या जतन नहीं किये। लेकिन बगियाँ के माली की हालात ही माली थी, तो माली बगियाँ में क्या रंग भरता?
उसने अपने मन के आक्रोश को न्यूज़ पेपर के कोमल पृष्ठों पर निकलते हुये पलटा, तो अपनी आखों में चमक लिये वह पढ़ती चली गई... महिलायें जो माँ नहीं बन पाई... पुरुष जो पिता नही बन पाये... टेस्ट ट्यूब बेबी... आई वी एफ... फर्टिलिटी सेण्टर... उर्वरक केंद्र... रोशनी को अब जीवन में इंद्रधनुषी रंग नज़र आने लगे थे।
"ओह, मेरी बगियाँ भी अब रंगों से सराबोर हो महकने लगेगी..." उसने बुदबुदाते हुये अब दृढ़ निश्चय कर लिया था।
आज जब नन्हे पुष्प ने मुस्कुराते और घुटने के बल चलते हुये उसका न्यूज़पेपर समेट डाला तो साकार सतरंगी स्वप्न रुपी अपने शिशु की मधुर मुस्कान पर माँ फ़िदा हो गई।...गुनगुनी धुप में रोशनी ने सब के सामने अपने पुष्प को कलेजे से लगा लिया।
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(21). डॉ टी आर सुकुल जी
रंग
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 सदा हॅंसते रहने वाले रवि को देर तक फोन पर किसी पुराने मित्र से बड़ी मस्ती भरी बातें पूरी करते करते अचानक बहुत सीरियस हो जाने पर सुनीता ने पूछा,
‘‘ क्या बात है? फोन पर तो बड़ा रंग बरसा रहे थे अब अचानक क्या हुआ? कौन था या थी?‘‘
रवि जैसे तन्द्रा से जाग गया हो, सुनते ही बोला,
‘‘ ओह सुनीता! सब तारतम्य बिगाड़ दिया, तुमने तो रंग में भंग ही कर दिया।‘‘
‘‘अच्छा! तो क्या मैं जान सकती हॅूं कि यह भंग हो जाने वाला रंग किसका था?‘‘
‘‘ अरे! यूनीवर्सिटी में पढ़ते समय एक सुंदर गीत के कारण हुई दोस्ती याद आ गयी और वे रंगीले दिन भी। अनेक वर्षों बाद आज फोन पर उससे बात हुई , लग रहा था जैसे बाॅटनी गार्डन में मित्रमंडली के साथ बैठा वह वही गीत सुना रहा है।‘‘
‘‘ तो क्या तुम मुझे वही गीत सुनाते हुए अपनी उन्हीं यादों को फिर से ताजा नहीं कर सकते? ‘‘
‘‘ मैं तुम्हें गीत के केवल बोल ही सुना सकता हॅूं, लय और तान का गायक तो वही है, मैं तो श्रोता ही रहा हॅूं हर समय।‘‘
‘‘ चलो वही सुना दो, रंग तो वापस आये‘‘
‘‘ बुंदेली में गाये उस गीत के बोल हैं,
"पिया मोय भूल जिन जैयो, पिया मोय बिसर जिन जैयो,
मोरी चुरियन के रखवारे मोरे ऐंगर रैयो, पिया मोय.... ‘‘
ये लाइनें सुनते ही सुनीता अपने स्कूल के दिनों में खेले गये नाटक ‘‘ढोला मारु‘‘ की याद में खो गई जिसमें ‘ढोला‘ बनी उसने, अपने पति ‘मारु‘ बने सहपाठी ‘ज्ञान‘ को रिझाने के लिये यही गीत गाया था और अभिनय इतना आकर्षक बना था कि साथ पढ़ने वाले लड़के/लडकियाॅं उन्हें पति पत्नी कहकर चिढ़ाने लगे थे, जिससे तंग आकर दोनों ने एक दूसरे से बात न करने और भविष्य में कभी न मिलने की कसम खाई थी।
सुनीता को सीरियस देख रवि ने ताना दिया,
‘‘क्या बात है? कहाॅं खो गईं?‘‘
सुनीता अपनी भाव भंगिमा छिपाते हुए बोली,
‘‘कुछ नहीं ! गीत में प्रेमिका के भय मिश्रित संदेह को कितनी अच्छी तरह मेरी बुंदेली भाषा में प्रकट किया गया है, बस मैं तो यही सोच रही थी, लेकिन तुम अचानक उदास क्यों हुए?‘‘
‘‘इसलिये कि मैंने अनेक बार उसे अपने घर बुलाकर सहपाठियों के साथ उसके गीतों का आयोजन करने का प्रस्ताव दिया पर किसी न किसी कारण से वह टालता गया और अब, मेरे उस मित्र ‘ज्ञान‘ ने अमेरिका जाकर वहीं बसने का निश्चय कर लिया है‘‘
यह सुनते ही रंगहीन हुई स्तब्ध सी सुनीता, एक ओर तो मन ही मन ज्ञान को अपनी निरर्थक कसम देने के लिये क्षुब्ध थी और दूसरी ओर उसकी सात्विक वचनबद्धता के प्रति कृतज्ञता भरे रंग की परत से, आॅंखों में छलकने को उत्सुक आॅंसुओं को रोकने का प्रयत्न कर रही थी।
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(22). श्री राजेन्द्र गौड़ जी
रंग

लाल को उदास देख नीले ने कहा "क्या बात ऐसे उदास क्यों? अब तो हमारे वंशज भी नाम कमा रहे हैं."
"भाई जो हमने उदारता से पीले के संग संतान की वो तो यह सोच कर की थी कि संसार की सुंदरता की बढ़ोतरी होगी.
जब मेरा पुत्र हुआ उसमें मेरी उष्मा व ओज तो था ही पीली की सरलता भी थी; हम बहुत आशावान थे कि यह तुम्हारे व पीली के सयुँक्त रचना "हरे" के साथ समाज को आगे बढ़ने में सहायक होगे."
"हाँ भाई सच हैं ऐसे नये रंग बनाने का क्या लाभ जो समाज में कटुता बढ़ाए" कह कर नीले ने ठंडी साँस छोड़ी
"भाई इसमें हमारा क्या दोष? ये मनुष्यों की ही गलती हैं कि प्रक्रति के रंगो को भी वर्गों में बाट दिया."
"ठीक हैं भाई यह आदमी ही कर सकता हैं, उल्लास के रंगो से झगडा."
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(23). श्री तसदीक अहमद खान जी
अपना अपना रंग
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घमंड में चूर गेहूं का दाना बाली से बाहर मुंह निकालते ही अपना  रंग दिखाना शुरू कर देता है, कभी कहता है मैं जन्नत के बाग़ से आया हूँ खुदा  के बनाये लोगों के पेट भरता हूँ,  मैं अगर न होता तो दुनिया भूखी मर जातीI गेहूं के दाने की ग़ुरूर भरी बातें सुन कर पौधे की जड़ में मौजूद पानी से नहीं रहा जाता, उसे नसीहत देता हुआ कहता है , मैं सारी दुनिया की प्यास बुझाता हूँ। ... तेरी क्या औक़ात है धरती के सारे पेड़ पौधों को मैं पालता  हूँI एक तरफ दाना और पानी अपना अपना रंग एक दूसरे पर जमा रहे थे और दूसरी तरफ खेत की मिट्टी दोनों की तकरार सुनकर मन ही मन मुस्करा रही थीI
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(24). श्री सतविंदर कुमार जी
अमन ख़ान 'अमनपरस्त'

एक बड़े और खतरनाक मंसूबे के साथ मुल्क में दाखिल हुआ वह।पूरी तरह प्रशिक्षित था।शातिर भी और बेहद चालाक भी।पैसों और हथियारों का भी उसके लिए पूरा बन्दोबस्त था।मुल्क में आकर काफी लम्बा समय गुज़ारा और मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में अपने सिपाही तैयार किए।मुल्क के ख़ुफ़िया तन्त्र को अंदेशा हुआ तो गुप्त रूप से उसके पीछे पड़ गया और वह कारनामे को अंजाम दे पाता,उससे पहले ही पकड़ा गया।हिरासत में -
"तुम लोग कौन हो?"
"हम हैं मज़हब के सिपाही।" बेफिक्र अंदाज़ में बोला।
"अच्छा!चाहते क्या हो तुम लोग?"
"पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना।"
"एक रंग में रंगना..?कौन से रंग में रंगना चाहते हो तुम दुनिया को?"
"हरे रंग में।" उसकी आँखों में चमक थी।
"ये कौन सा तरीका है तुम्हारा ?"
"हमारा यही तरीका है और यक़ीनन हम इसी तरीके से अपने मकसद में कामयाब होंगे।"
"तुम दुनिया को हरे रंग में नहीं लाशों और घायल जिस्मों से रिसते हुए खून के लाल रंग से रंग रहे हो।क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?"
"हा हा हा हा यह तुम्हारा नज़रिया है।"
"तो तुम लोगों का नज़रिया क्या है?"
"हरे रंग के फैलाव और हिफाज़त के लिए लाल रंग के छींटे जरुरी हैं।फिर वे दूसरे लोगों के जिस्म से हों या हमारे ।"
"पर हम लोग ऐसे कारनामों में तुम जैसों को क़ामयाब नहीं होने देंगे।"
"अरे साहब!हम लोग क़ामयाब भी आप ही के मुल्क के बाशिंदों की मदद से ही होते हैं।"
"मतलब?"
"हम जैसों का किसी भी मुल्क में आसानी से घुसना उस मुल्क की सरहदों के निगेहबानों की मदद से ही होता है।बेरोजगारी और जल्दी पैसा कमाने की ललक नौजवानों को स्लीपर सेल बनाने में हमारी मदद करता है।"
"कुछ भी हो। अगर यहाँ कुछ लोग जैसा तुम बता रहे हो ऐसे हैं तो मुल्कपरस्ती भी यहां जर्रे-जर्रे में कायम है।पकड़े गए न तुम और तुम्हारे स्लीपर सेल।"
"हाँ पकड़े गए।पर हरे रंग को कायम करने की यह जंग और उसका दौर खत्म नहीं हुआ।जब तक ये रंग जहां में कायम नहीं हो जाता हम न चैन से बैठेंगे और न हुकूमतों को बैठने देंगे।"
"नाम क्या है तुम्हारा?"
"अमन ख़ान 'अमनपरस्त'।"
"हैंsssss! किसने रखा यह नाम?"
"हमारे नेक दिल वालिद साहब ने रखा था।"
"तुम्हारे वालिद साहब हरे रंग की सच्ची चमक के क़द्रदानों में से एक हैं।हैं चन्द लोग जो इस अमनपरस्त और इंसानियत परस्त चमक को लगातार नुकसान पहुंच रहे हैं।सोचो!कौन हैं वे लोग?"
वह निःशब्द था।

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(25) सुश्री प्रतिभा पांडे जी
'रंगा सियार'
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आज रंगे सियार का मन ग्लानि से भरा हुआ था i  एक बड़ी हवेली के बगीचे में झाड़ियों के पीछे छिपा हुआ था वो I हवेली में होली का उत्सव चल रहा था I सब लोग रंग में पुते थे और एक दूसरे को रंग से भरे हौदे में डाल रहे थे I उसके ह्रदय को चीर रहा था ये दृश्य I उसे याद आ रहा था वो दिन जब वो  रंग से भरे हौदे में गिरकर रंग गया था I सारे जंगल के जानवरों ने उसे कोई खूंखार जानवर  समझ कर अपना राजा बना लिया था I ग्लानि के बहते आँसूं उसे याद दिला रहे थे कि कैसे फिर उसने अपने सियार भाइयों पर जुल्म  करके उन्हें जंगल से बाहर निकलवा दिया था I पोल खुलने के बाद , जंगल के  जानवरों से तो उसने जान बचा ली थी पर ये ग्लानि का भार उसे अब  जीने नहीं दे रहा था I
दो लोगों को झाड़ियों के पास आता देख वो डर कर सिमट गया  IIउनकी बातें वो साफ़ सुन पा रहा था I
"दद्दा i आपके भाई जैसे हैं दोनों I आपको चुनाव जितवाने के लिए जान झोंक दी थी दोनों ने i कुछ  नाराजगी है तो हम समझा देंगे ,पर दद्दा ..ये तो..,.एक बार फिर सोच लो "I डरी हुई हकलाई आवाज़ थी ये I
" भाई जैसे  हैं और हमारे बारे में सब जानते भी है I वो झूठे कागजात से लेकर लड़की वाले किस्से तक, एक एक बात पता हैं इनको  हमारे बारे में I बड़ी मुश्किल  से मिली है ये कुर्सी ,रिस्क नहीं ले सकते हैं हम अब " Iये आवाज़ भारी थी I
"पर दद्दा i"
"चल शाबाश ,घबरा मत I ये गोलियां  ले और डाल आ उनकी ड्रिंक में I कल चलेंगे ना फिर भाभियों के पास शोक जताने i ला , तेरा चेहरा और अच्छे से पोत दूं रंग से ,I  होली है .." I भारी आवाज़ जोर से हंस रही थी I
दोनों के जाने के बाद रंगा सियार झाडी के पीछे से बाहर आ गया I अब उसका मन हल्का था  I  ग्लानि  का बोझ उतर चुका था   और एक आत्मविश्वास सा महसूस कर रहा था वो अपने अन्दर I पास में ही  होली के रंगों से  बन आये कीचड में वो लोट लगाने लगा  I एक सफ़ेद खादी टोपी वहां गिरी पड़ी थी I,कुछ देर उसने उसे देखा और फिर मुहँ में दबाकर  जंगल की ओर दौड़ पड़ा I
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(26). श्री प्रदीप नील वसिष्ठ जी
“सबसे पक्का रंग “
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हिना एक पल के लिए तो सन्न हुई , मगर अगले ही पल उसने पलट कर बंद किवाड़ों पर जोर से लात दे मारी । जर्जर किवाड़ बुरी तरह चरमराए और भड़ाक से खुल गए। वह बेसब्री से इंतजार कर रही है कि कब कोई बाहर निकले, और कब वह उसे कस कर एक झापड़ रसीद कर दे। कोई नहीं आया तो हिना ने भीतर झाँका। आँगन में सात-आठ साल का एक बालक खडा था । बुरी तरह डरा-सहमा और दोनों हाथों को कमर के पीछे ले जाकर पिचकारी छुपाने का असफल प्रयास करता हुआ।
"दीदी, प्लीज़ मुझे माफ़ कर दो। "
उस मासूम की मुख-मुद्रा देख हिना क्रोध थोड़ा कम हुआ। अब वह बस इतना ही कह पाई:
"तुमने मेरे सफ़ेद दुपट्टे का सत्यानाश कर दिया, छोटू। तू क्या जाने मैं इंटरव्यू देने जा रही थी। अब इतना समय भी नहीं कि घर लौट कर …. "
तभी कमरे से एक युवक प्रकट हुआ और बालक को डांटने लगा:
"तुमसे कहा था न कि होली कल है , एक दिन भी सब्र नहीं हुआ, नालायक ?"
"बच्चा है, जाने दीजिए। " हिना ने अपने सफ़ेद दुपट्टे पर पिचकारी से बने लाल रंग के धब्बे को झाड़ते हुए कहा था " दिक्कत बस इतनी है … "
"घबराइए मत,मैंने सब सुन लिया  " युवक मुस्कुराया था " सिर्फ दो मिनट के लिए दुपट्टा देंगी आप ?"
कोई और अवसर होता तो लाज से मर ही जाती,हिना । मगर उस युवक में जाने न जाने कैसा तो सम्मोहन था कि हिना ने अपना दुपट्टा उतार उस अनजान को सौंप दिया और उसके पीछे-पीछे आँगन में चली आई। युवक ने नल खोला और साबुन से दुपट्टे को धोने लगा। हिना उसे देख-देख मुस्कुराती रही। पहली नज़र में प्यार जैसी बातों का मजाक उड़ाने वाली हिना जाने किस दुनिया में खोई थी। ज्यों-ज्यों दुपट्टे से रंग उतरता जा रहा था, त्यों-त्यों कोई रंग हिना के दिल पर चढ़ता जा रहा था। युवक ने दुपट्टे को चार बार फटकारा और लड़के से बोला " मेरे कमरे में मेज पर प्रेस रखी है , लाना तो ज़रा। "
"अभी लाया ,भुवन भईया " कहता हुआ बालक भीतर की ओर भागा। युवक का नाम सुन कर झटका सा लगा , हिना को।
 इधर धूप से बदरंग मेज पर हल्का गीला दुपट्टा प्रेस हो रहा था , उधर हिना सर झुकाए पाँव के अंगूठे से कच्चे आँगन की जमीन कुरेदे जा रही थी। उसकी तन्द्रा तो तब टूटी जब उसे दुपट्टा सौंपते हुए भुवन मुस्कुराया था " यह लीजिए , बिलकुल पहले सा हो गया। शुक्र है, रंग पक्का नहीं था। "
हिना मुस्कुराई थी " पक्के रंग बाज़ार में नहीं बिकते , शीश कटाने से मिलते हैं। बाई द वे,मेरा नाम हिना है। "
नाम सुनकर भुवन के चेहरे पर कई रंग आए और गए। हिना ने उसे कनखियों से देखा और एक झटके से बाहर निकल गई।
जानती है , वह शाम को इसी गली से वापिस लौटेगी तो भुवन दरवाजे पर खड़ा मिलेगा , इंतजार करता हुआ। नहीं मिला तो समझ लेगी यह रंग भी छोटू की पिचकारी से निकले रंग जैसा बहुत ही फीका था, जो मज़हब के सामने टिक नहीं पाया। ।
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(27). सुश्री बबिता चौबे शक्ति जी
रंग

'अरे !मीना कहा गई ?दिख नही रही ।"
"पता नही माँ अभी तो यही थी माँ ।"
"कमरे में देखती हूँ ।अरे !मीना क्या हुआ ?तू रो रही है ,चल नीचे सब नीचे है होली है बेटा आज।"
"हाँ ..माँ पर मेरा नीचे क्या काम माँ में तो विधवा हूँ न और अभागन हूँ पहली होली ही मेरी ........सिसकते हुए सास से लिपट गई।"
सास ने प्यार से कहा " मेरे बेटे ने अपने खुन के रंग से भारत माता को सजाया है तो ऊसकी माँ अपने बेटे की अमानत के जीवन को रँगहीन कैसे होने देगी तेरे जीवन मे फिर से रँग ..हम भरेगे तू बहू ही नही बेटी भी है ना हमारी।"
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(28). सुश्री उपमा शर्मा जी
शोहरत के रंग

जब से निर्देशक ने नई अभिनेत्री सिमरन के सर पर हाथ रखा था शोहरत और कामयाबी जैसे उनके कदम चूमने लगी थी। जो लोग सिमरन का नाम सुनकर ही फिल्म के लिए मना कर देते थे आज उनके अभिनय के लिए मुँहमांगी रकम देने को तैयार थे। आज के इस कार्यक्रम में सिमरन को सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री के पुरूस्कार के लिए चुना गया था। मंच पर आती सिमरन ने अब तक की कामयाब अभिनेत्री माया को देखकर बुरा सा मुंह बनाया।
"हूंह ,मुझे ये अवार्ड देगी? मोस्ट फेल्योर।"
माया ठठाकर हंस पड़ी:
"कुसूर तुम्हारा नहीं सिमरन। शोहरत और दौलत के रंग ही ऐसे हैं कल तक मेरे गुलाम थे आज तेरे।"
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(29). सुश्री माला झा जी
रंग
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आज मुद्दतों बाद रमेश के चेहरे पर ख़ुशी की चमक छायी थी। शुभम ,उसके सबसे जिगरी दोस्त ने उसे सपरिवार भोजन पर निमंत्रित किया था।एक दर्दनाक हादसे में अपनी आँखें खो देने के बाद आज लगभग एक साल बाद वह घर से बाहर निकल रहा था। सारी जिम्मेदारी उसकी पत्नी मीना पर आन पड़ी थी।शुभम के प्यार भरे अनुरोध और जिद के आगे उसका कोई बहाना न चला। अंततः निमंत्रण स्वीकार करना ही पड़ा।
"मीना...सुनो आज तुम वही गुलाबी टसर सिल्क की साड़ी पहनना जो मैंने तुम्हे पहली सालगिरह पर दी थी। बेहद खूबसूरत लगती हो तुम उसमे।" कहते हुए रोशनीविहीन आँखों के आगे मीना का खूबसूरत चेहरा तैर गया।
थोड़ी ही देर बाद दोनों गाडी में मौजूद थे। ड्राइविंग सीट पर मीना थी। एक्सीडेंट के बाद तो घर और गाडी दोनों की स्टीरिंग मीना के हाथ में थी। मीना झुकते हुए रमेश के सीट की बेल्ट लगाने लगी।बेहतरीन फ्रेंच परफ्यूम की खुशबू नथुनो से टकराती हुई रूह में उतर गयी। भावावेश में मीना को बाहों में भर लिया। लेकिन अगले ही पल उसकी पकड़ ढीली पड गयी। दिल में हलचल सी होने लगी।मन में कुछ कौंधा:
"मीना ने तो वही पीली शिफ़ोन की साडी पहनी है जो शुभम ने उसके जन्मदिन पर उसे उपहारस्वरूप दी थी।"
"क्या सोचने लगे रमेश?" कहते हुए मीना ने गाडी स्टार्ट की।
"कुछ नही ,बस यही सोच रहा हूँ कि आँखों की रौशनी क्या गयी,दुनियाँ का रंग ही बदल गया।"
"मतलब?"

"मतलब ये कि साड़ियाँ बेचते बेचते ,उनके इंद्रधनुषी रंगों से खेलते खेलते दुनियाँ के रंग ही भूल गया था।"
मीना के चेहरे का रंग सुर्ख़ से स्याह हो गया।
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(30). सुश्री सीमा सिंह जी
रंग
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किसी गहरी नदी की सी गंभीरता लिए ही देखा था उन्हें बचपन से। मुँह अँधेरे उठकर घर के कामों में जुटी, हर आवाज़ पर दौड़ती, सबकी जरुरत का ख्याल करती, सफ़ेद लिबास में लिपटी शांता बुआ। चार भाई और भाभियाँ और उनके हम सब बच्चे। सबकी आदतों से परिचित बुआ की आवाज़ तो कभी-कभी ही सुनाई देती। इतनी शांत बुआ झगड़े की वज़ह भी हो सकती हैं, विश्वास ही ना हुआ था। पर बड़े चाचा की आवाजों से पूरा दालान गूंज रहा था:
“तू जानता भी है छोटे कि तू क्या बोल रहा है? ऐसा अनर्थ हमारे कुल में ना कभी हुआ ना होगा! दद्दा आप समझाइए इसे।”
“बहन हम सबकी नौकरानी बन कर रह गई, उसमे अनर्थ नहीं है? दुबारा घर बसने में अनर्थ हो जायेगा!” ये छोटे चाचा का स्वर था.
“आप एक बार सोचिए तो सही दद्दा,” अब तक चुप खड़े मझले चाचा भी छोटे चाचा के समर्थन में उतर आए थे।
पिताजी ने थोड़ा समय माँगा था सोचने के लिए। इस बीच घर की स्त्रियों ने भी मौन आहुति डाल दी थी - छोटे चाचा के यज्ञ में।
घर में उत्सव मन उठे। सफ़ेद लिबास उतार, लाल जोड़े में लिपटी शांता बुआ की आँखों में जीवन की ज्योति जल उठी थी।
तब पहली बार जाना नारी जीवन में लाल और सफ़ेद रंग का फ़र्क।
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(31). श्री लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

संस्कार और करियर

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अपने दो पुत्रों के संयुक्त परिवार में छोटे पुत्र राकेश ने पत्नी अंजली के दबाव में शारीर से विकलांग पिता रामदीन को अलग रहने का निर्णय सुनाया तो पिताजी ने कहाँ बेटा पहले मै बहूँ से बात कर लूँ |

रामदीन जी ने अंजली से कहाँ,- देखो, विवाह से पहले जब हम तुन्हें देखने गए थे तब मैंने तुमसे पूछा था कि तुम्हे संयुक्त परिवार पसंद है या नहीं | तब बीच में ही तुम्हारे पिताजी ने कहाँ था कि बिटियाँ तो हर तरह से अपने को ढाल लेगी | फिर भी बेटा तुम्हे कोई परेशानी है तो बताओ |

अंजली बोली परेशानी तो नहीं है पापा,पर हमें अपने तरीके से स्वतंत्र जीवन जीना है | अब हमे इस घर का आधा हिस्सा चाहिए | बड़े भाईसाहब तो आपके साथ दूकान पर ही बैठते है वे तो आपके साथ यही रहेंगे | ये सिंगापुर से कम्प्यूटर इंजनियरिंग करके अच्छा पैकेज पा रहे है | मैं भी पोस्ट ग्रेजुएट हूँ | हमें अपना प्रथक करियर बनाना है | रामदीन जी ने कहाः “ करियर बनाने की सोच तो अच्छी है, पर करियर तो यहाँ सबके साथ रहकर भी बनाया जा सकता है | तुम्हे कोई रोक टोक नहीं है | प्रथक रहने पर व्य्स्तता के कारण बच्चों को संस्कार जो इस संयुक्त परिवार में मिलते उनसे वह वंचित रहेंगे | अच्छा हो कुछ वर्ष संयुक्त परिवार में बिताओ | तुम जॉब करना चाहों तो यही तलाश करलो |

जब अंजली ने प्रथक होने की जिद पकड ली तो रामदीन जी ने कहाँ ठीक है, बेटा जैसी तुम्हारी इच्छा, मै तुम्हारे करियर में बाधा बनाने की सोच भी नहीं सकता, मेरा आशर्वाद तुम्हारे साथ है | जिस रंग में अपना परिवार ढालना चाहों, सोच समझ कर निर्णय लो |

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(32).  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी

होली खेलते हुए आवेश में आकर उसने लज्जा की मांग में लाल रंग भर दिया I लज्जा के चेहरे का रंग उड़ गया I  वह अपने घर की और भागी I कुछ शोहदों ने यह नजारा देख लिया I फिर क्या था बात पूरे गाँव में फैल गयी I होली के रंग में भंग हो गया I लज्जा अनुसूचित जाति की थी और वह ब्राह्मण I  सवर्ण समाज संगठित हो गया I इज्जत के नाम पर दूसरे वर्ग ने भी लाठियां उठा ली I कुछ बुजुर्गों ने बातचीत से मामला सुलटाने की कोशिश की I
‘लोग बेवजह बात का बतंगड़ बना रहे हैं ‘- उसने तड़प कर कहा –‘रंग ही तो था कोई सिन्दूर नहीं था ?’
‘पर मांग क्यों भरी, मांग तो खून से भी भर दो तो विवाह माना जाता है I ‘- दूसरे वर्ग ने दलील दी I
वाद –विवाद शुरू हो गया I कोई हल नहीं निकल रहा था I वाक् घमासान जारी था I उसने एक पल कुछ सोचा फिर भागकर पहले अपने घर गया फिर उसी तेजी से लज्जा के घर में दाखिल हुआ I लज्जा औरतों से घिरी जार-जार रो रही थीI उसने लज्जा का हाथ पकड़ा और भीड़ के बीच में आ खडा हुआ I  भीड़ का खून खौल उठा पर उसने किसी को कोई मौक़ा ही नही दिया I उसने चिल्लाकर कहा –‘ मैं सारा झगडा ही ख़त्म कर देता हूँ I’
इतना कहकर उसने जेब से सिन्दूर की वह डिबिया निकाली जो वह अपने घर से लाया था फिर उसने डिबिया लज्जा की मांग पर उलट दी I फिर क्या था सन्नाटा छा गया I सवर्णों के चेहरे रंगहीन हो गए I अब तो वह होली मनी जो गाँव के इतिहास में कभी न मनी थी  I मौका पाकर उसने लज्जा के कान में फुसफुसा कर कहा- ‘बात इतनी सी नौटंकी से बन जायेगी इसका यकीन तो मुझे भी नहीं था I’
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(33). सुश्री नीता कसार जी
"बेरंग वर्दी "

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पार्टी पूरे चरम उत्साह पर थी। अचानक एक सब इंस्पेक्टर दो कान्सटेबल के साथ धमक पड़े। अपनी रोबीली आवाज मे बोला "नशा कर रहे हो सबको गिरफ्तार करो।"
कमल- "सर जन्म दिन की पार्टी है कोई नशा नही कर रहा। सकपकाये समूह से धीरे से स्वर निकला ।
औरो ने भी समझाने की कोशिश की किन्तु उसका रौब बढ़ता गया।
तुम तो गुलाब ठेकेदार के लड़के हो। ईधर आ रे।
अनिल सब ईन्सपेक्टर के पास गया । तो उसे एक ओर ले जाकर कहा। " अपना भविष्य खराब मत करो बीस हजार दे दो सबको छोड़ दुंगा। "
ठीक है सर मै बात करता हूं आप ईन्तजार करे।
कुछ देर बाद फिर डंडा हवा में लहराते कड़क आवाज मे वह बोला जल्दी करो। वरना सबको गाडी में भरो, हवालात की हवा खायेंगे ।
अनिल- जी सर आया।
जैसे ही उन्होने रुपये दिये। भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते ने सब ईन्सपेक्टर को पकड़ लिया।
हमारे रंग मे भंग कर रहे थे। अब खुद बेरंग हो गये।
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(34). योगराज प्रभाकर
रंगत

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"पैंतीस साल की नौकरी के बाद भी न कोई कदर है न कोई इज्ज़तI ये भी साली कोई जिंदगी है? इससे अच्छा तो मौत ही आए, सारा टंटा ही ख़त्म होI" अपना स्कूटर दीवार से साथ लगाकर बाबूजी बड़बड़ाते हुए घर में दाखिल हुएI
दरअसल आज का दिन ही मनहूस था बाबू जी के लिएI सुबह घर से काम पर जाने के लिए निकले तो तो रास्ते में स्कूटर खराब हो गया, सुबह सुबह कोई मैकेनिक भी नहीं मिला तो लगभग तीन मील तक बमुश्किल स्कूटर को घसीटते हुए कारखाने पहुँचेI जाते ही उस नए अफ़सर ने बिना कुछ सुने बाबू जी को देर से आने पर न केवल डांटा बल्कि नौकरी से निकाल देने की धमकी भी दी थीI दोपहर को पता चला कि तीर्थ यात्रा पर जाने के लिए उनकी छुट्टी मंज़ूर नहीं हुईI यही नहीं अपने छोटे बेटे के दाखिले हेतु जो ऋण की अर्जी दी थी, वह भी अस्वीकार कर दी गई थीI उनका खाना भी आज डिब्बे से बाहर नहीं निकला, और भोजनावकाश के समय वे बीडी पर बीडी फूंकते रहेI
"बाबू जी, पानीI" बाबू जी को देखते ही उनकी पुत्रवधु पानी का गिलास उनके सामने रखते हुई बोलीI
"नहीं बहू मुझे नहीं चाहिए, ले जाओ उठाकरI" बाबू जी के माथे की त्योरियां और गहरी हो रही थीI
"इतने परेशान क्यों हो, तबियत तो ठीक है न? क्या हुआ है तुम्हें ?" बाबू जी की पत्नी भी कमरे में आ पहुंचीI
"कुछ नहीं हुआ मुझे, बस तुम लोग जाओ यहाँ सेI" बाबू जी ने उन्हें उँगली के इशारे से बाहर का रास्ते दिखाते हुए कहाI
"बाऊ जी, वो आपके लोन का क्या हुआ?" स्थिति से अनभिज्ञ छोटे बेटे ने कमरे में प्रवेश करते ही पूछाI
उत्तर में बाबूजी ने उसे बुरी तरह घूर कर देखा, उनका यह रूप देखकर सब ने वहाँ से जाना ही उचित समझाI बीडी सुलगाकर वे फिर बडबडाने लगे:
"ये जिंदगी है कि साला नरक?" कमरे की दीवारों का ज़र्द पीला रंग धीरे धीरे उनके चेहरे पर उतर रहा थाI और वे एकटक दीवारों को घूरे जा रहे थे, उदासी का सन्नाटा पूरे कमरे में फैल चुका था, तभी नन्ही नन्ही पायलों की छनछन से कमरा गूंजने लगाI      
"दादू, दादू जी!!"
इन शब्दों से उनकी तन्द्रा भंग हुई, तीन साल की पोती अचानक उनकी टांगों से आ लिपटी और बाबूजी के माथे से त्योरियाँ कम होने लगींI
"अले अले अले!  मेरी गुगली मुगली! मेरी म्याऊँ बिल्ली! कहाँ चली गई थी तू? दादू जी कब से तुझे ढूँढ रहे थेI" नन्ही पोती को उठाते हुए वे पक्षियों की भांति चहक रहे थे, पोती ने भी अपना सर दादा जी के कंधे पर रख दिया I अब धीरे धीरे उनके चेहरे के पीलेपन पर पोती की फ्रॉक का लाल रंग चढ़ना प्रारंभ हो चुका थाI उसके सर को धीरे से थपथपाते पुत्रवधू को आवाज़ दी:
"एक कप गर्मागर्म चाय तो पिला दे बहूरानीI"
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(35) श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी

डर

 

“उसके मानसिक रोग का उपचार हो गया|” चिकित्सक ने प्रसन्नता से केस फाइल में यह लिखा और प्रारंभ से पढने लगा| दंगों के बाद उसे दो रंगों से डर लगने लगा था| वो हरा रंग देखता तो उसे लगता कि हरा रंग भगवा रंग को मार रहा है और इसका उल्टा भी लगता| उसके चिकित्सक ने बहुत प्रयत्न किया था, दवाओं के साथ-साथ सवेरे सूर्य उगने के समय हरी घास पर उसे चलावाया तो वो घास और उगते सूर्य का रंग देखकर भाग जाता| उसे रंगों की पुस्तक भी दी गयी थी, लेकिन उसने उसे भी डर कर फैंक दिया|

 

फिर उसे उसके देश का झंडा दिखाया, जिसमें तीन रंग थे, भगवा से बिलकुल मिलता-जुलता केसरिया रंग उपर, हरा रंग नीचे और बीच में सफ़ेद रंग जो दोनों रंगों को जोड़े रखता था| दोनों रंगों को एक साथ देख वो झंडा अपने हाथों में लेकर गौर से देखता रहता था, यही उसका इलाज था| उसकी गर्दन हिलती देख चिकित्सक की तन्द्रा भंग हुई, उसने प्रेम से पूछा, "अब तो इन रंगों से डर नहीं लगता|" उसने इनकार में गर्दन हिला दी| चिकित्सक निश्चिन्त हुआ|

अचानक देखते ही देखते उसके चेहरे के भाव बदल गए, आँखें फ़ैल गयीं, आँसू निकल आये और साँसे तेज़ चलने लगीं| वो घबराने लगा, और अपने चिकित्सक का हाथ पकड़ कर बोला, "कहीं लोग अपनी तरह इसके भी रंग बदल देंगे तो...?" कहते हुए उसने झंडे को लपेटा और अपनी कमीज़ के अंदर छिपा दिया|

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(36) श्री प्रदीप कुमार पांडे जी
'  गुझियाँ '

"ला बहू लिस्ट दे दे ,सामान ले आऊँ "
"कौनसा सामान बाबूजी ?"
"अरे गुझियाँ का , परसों होली है ना , रंग गुलाल वगेहरा भी लाने हैं "I
"हाँ  बाबूजी  सब हो जायेगा , आप क्यों परेशान हो रहे है , वैसे भी यहाँ मुंबई में इतना सब ताम झाम नहीं होता है "I
पिछले तीन दिन से बहु ऐसे ही टाल रही है उन्हें I उन्हें भी पता है ,कोई गुझियाँ वुझियाँ  नहीं बनेंगी , बस उन्हें कहने में अच्छा लगता हैI सावित्री होली के हफ़्तों पहले लिस्ट थमा देती थी उन्हें I वो चिढ जाते थे Iएक बार उन्होंने कह भी दिया था कि चल तैयार गुझियाँ मंगा लेते है तो कितना गुस्सा हुई थी I
डबडबाई आँखों  से उन्होंने दीवार में लगी सावित्री की फोटो  को देखा और बुदबुदाए;
" चल दीं ना सारे रंग अपने साथ लेकर "
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(37). डॉo विजय शंकर जी
मिट्टी के रंग

बेटा आज कई वर्षों बाद विदेश से पढ़ाई पूरी करके वापस आ रहा है। एयरपोर्ट से बाहर आते ही उसने आसमान की तरफ देखा और उदास हो गया।
बोला , " क्या पापा , अभी भी वही धुंधला-धुंधला आकाश , नीला आकाश आशाएं जगाता है , खुशहाली का सन्देश देता है। "
" बेटे यह तो धूल है , उड़ती रहती है , उसी से आकाश का रंग कुछ धुंधला हो जाता है " पिता जी ने बेटे को समझाया।
" वही तो मैं भी कह रहा हूँ ," बेटे ने अपनी बात जारी रखी , " धूल यानी मिटटी , मिट्टी तो सोना है , लेकिन खेत में , कहीं और नहीं। यहां तो ऐसा लग रहा है जैसे कि खेत की मिटटी हर जगह अपना रंग दिखा रही है , यह तो स्वास्थ के लिए भी हानिकारक है। "
" बेटे मिट्टी है तो उड़ेगी ही , अब इसे कौन रोक सकता है , " पिता जी अपनी बात दोहरा रहे थे।
" कौन नही रोक सकता , पापा। सब रोकते हैं , करीब करीब हर देश अपनी मिट्टी को संभाल रखता है , उसे यूं नहीं उड़ने देता है। रंग आकाश का आकाश जैसा ही नीला होना चाहिए और मिटी का एक - एक कण खेत में ही होना चाहिए। तभी सब रंग अच्छे लगते हैं , नहीं तो सारे रंग फीके और धुंधले लगते हैं।"
सामान कार में रखा जा चुका था , कार घर की ओर धूल उड़ाती हुयी जा रही थी।
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(38). श्री विनय कुमार सिंह जी
ख़याली आज़ादी

.
"हद है ये तो, दुकान खोल ली है, तमाम ग्राहकों से बात करना है पर शरीर पर बुर्का पड़ा हुआ है| पता नहीं कब मिलेगी इनको आज़ादी इन सब से", बोलते हुए वो बिल का भुगतान करने के लिए काउंटर पर खड़ी महिला के पास जाने लगा| साथ चल रही पत्नी, जो किसी कार्यालय में काम करती थी, की निगाह अचानक एक अच्छे ड्रेस पर गयी और वो लपक कर उसे उठा लायी|
"ये क्या उठा लायी, कुछ भी पूछने की जरुरत नहीं, बस ले लिया जो मन आया| रखो इसको वहीँ पर, जहाँ से लायी थी", बोलते हुए वो सामान काउंटर पर रख कर बिल का इंतज़ार करने लगा|
पत्नी के चेहरे पर कई रंग आये और गए| उसने ड्रेस को वापस रखकर लौटते हुए एक बुर्का उठा लिया, अपने अदृश्य बुर्क़े से तो वो बेहतर लग रहा था उसको|
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(39). श्री मनन कुमार सिंह जी
रंग

.

महिमा को लेकर माधवी मिष्ठान्न भंडार से बाहर आ गयी।पति भी महिमा के लिए उसकी पसंद की गयी टॉफियाँ लेकर उनके पास पहुँचे।दादाजी के हाथ से पैकेट लेकर महिमा खूब खुश हुई।जैसे ही वे सड़क पर आये,एक खाली रिक्शा नजर आ गया।वे लोग उसमें बैठ गये,सोचा चलो पुराना-टूटा रिक्शा ही सही,घर चलने भर का तो काम ठहरा।रास्ते में जनरल स्टोर से महिमा के लिए 'किंडर ज्वाय' लेने की बात थी।बगल में रिक्शा रुकवाकर दादाजी बच्ची की पसंद की मिठाई लेने दुकान में गये,मिठाई का आर्डर दे रिक्शा पर अपनी दादी के साथ बैठी महिमा की तरफ देखने लगे।दूकानवाले ने किंडर ज्वाय उन्हें दिया,वे पैसे चुका कर चलने को हुए कि महिमा चिल्लाई,'दादाजी! दो चाहिए,दो।' फिर एक और पैक लेकर वे वापस आये।महिमा अपनी चीज के लिए उछलने लगी।तत्काल उसे एक दिया गया कि दूसरा घर चलकर मिल

जायेगा।बच्ची खुश थी।फिर थोड़ा आगे चलने पर वह बोली कि मुझे दोनों ही चाहिए,अभी।दादा-दादी बचपन का रंग देख खोये खोये जा रहे थे।ब रिक्शा घर पहुँच चुका था।दादी के साथ महिमा रिक्शा से उतर गयी।उसके दादाजी ने रिक्शावाले को बिस रूपये दिये,तो उसने कुछ और पैसे माँगे।दादाजी बोले कि बीस रूपये ही होते हैं चौराहे से यहाँ तक के ।रिक्शावाले ने जाने कैसे फिक्स समझ लिया।बतीसी निपोड़ते हुए वापस जाता वह बोला,' फिक्स क्या ...।एक ही आदमी कई-कई दामों में बिकता है यहाँ।' यह उसका अपना रंग था।

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(40). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी
प्रकृति के रंग

गंभीर बीमारी से पति की मृत्यु , के पश्चात मायके में रह रही रिया चिडचिडी हो, सदैव लड़ने को तत्पर रहती थी। सदैव संयमित रहने वाली भाभी भी संयम खो बैठी लेकिन स्वंय पर अंकुश रखते हुए कह उठी -
" रिया, आपका मन घर के कामों में नहीं लगता तो मत करो , लेकिन घर के बाहर निकलो लोगो से मिलो-जुलो, हँसो बोलो "
" भाभी , मेरा मन नहीं करता "
" क्यों रिया ?क्या प्रकृति मात्र एक ही रंग और रिश्ते से सजी हैं ?
" मतलब ? आप कहना क्या चाहती है ? "
" जैसे पतझड़ के बदरंग मौसम भी बहारो में खूबसूरत और रंगीन हो जाते हैं। गर्मी की चिलचिलाती धुप बेशक तपिश देती हैं लेकिन सर्दियों में उसकी गुनगुनाहट कितने खुशगवार रंग बिखेर प्रकृति की तपिश सुहानी कर देती हैं । "
" हाँ , अब मैं भी तो पतझड़ का ही हिस्सा हूँ ? "
" इसलिए कह रही हूँ , सोचो मत, उतार फेकों यह हिमालय सी सफेदी "
" हिमालय सी सफेदी उतार दूँ?"अचानक उसकी पोरों में जमी हुई बर्फ की चुभन अब सिसकियों में बदल गयी ।
--------------------------------

(41). श्री वीरेन्द्र वीर मेहता जी
    "झिलमिलाते रंग"

.

"हैलो, हैलो, सर! जिस 'अनआईडिंफाईड आबजेक्ट' पर हम कई वर्षो से काम कर रहे है उसकी 'क्लीयर पिक्चर' ए पी ए 10 के भेजे चित्रो में आ गयी है और वो........."
'नासा' के नियंत्रण कक्ष में 'मानिटर डिस्प्ले' पर फ्लैश होते सन्देश पर नजर पड़ते ही अस्सी वर्षीय वयोवृद्ध वैज्ञानिक वेंकटेश्वरमन को उन झिलमिलाते रंगो का रहस्य सामने आने की आशा पूरी होती दिखाई दी जिसकी उम्मीद वो वर्षो से लगाए बैठे थे। उन्होंने अपनी आँखे स्क्रीन पर जमा दी।
"और सर वो एक 'ह्यूमन बाॅडी' है जिस पर झिलमिलाते रंग और कुछ नहीं सिर्फ उसपर लिपटे कपड़े के रंग है और हम जल्दी ही.........।
"तुम मुझे फ़ौरन वो चित्र भेजो।" उन्होंने बेसब्र होते हुए उत्तर दिया।
क्षण भर में ही चित्र फ़्लैश होने लगे और स्क्रीन की ओर देखते देखते वेंकटेश्वरमन की आँखे नम हो गयी।
धुंधली होती स्क्रीन पर वर्षो से एक और अनसुलझी दास्तान उभरने लगी थी। वर्षो पहले ऐसे ही एक दिन स्क्रीन पर फ़्लैश होते शब्द उनकी आखों के सामने चमकने लगे।
".......'अटेंशन आल्स, प्लीज्! मेरा यान अपने मिशन से भटक कर अंतरिक्ष के अंधकार को चीरता हुआ अंतहीन दिशा की ओर बढ़ रहा है और किसी भी क्षण, किसी भी 'पार्टिकल' से टकराते ही इसका अनगिनीत टूकड़ो मेँ बिखर जाना तय है। लेकिन मुझे अपना ये अंत स्वीकार नही है। इसलिये.... इसलिए मैं अपने देश के गौरव के साथ इस यान को छोड़ रहा हूँ, 'अलविदा' हिन्दुस्तान !"............
'तिरंगे' में लिपटे उसके शरीर पर शान से झिलमिलाते रंग देख अनायास ही वेंकटेश्वरमन के हाथ सैल्यूट के लिये उठा गए।

----------------------------------------------
(42). सुश्री राजेश कुमारी जी  

रंग

.
“ऐसे वैसे से शीना मेरिज नहीं करेगी माई डियर, मेरे इस रंगरूप के सामने वो स्टेंड ही नहीं कर पा रहा था फिर कोई  एन आर आई गोरा चिट्टा होता तो बात अलग थी  खैर डोंट वरी उस  काले फौजी राजन का मैच तेरे साथ बिल्कुल फिट रहेगा तू कर ले उससे शादी  हाहाहा “
शीना ने नीलू के सांवले रंग पर एक उड़ती सी नजर डालते हुए कहा था गोया हमेशा की  तरह आज एक और नया थप्पड़ शीना ने उसके गाल पर जड़ दिया हो दिल मसोसकर रह गया था उसका|
“अरे कहाँ खो गई हो नीलू? चलो कैप्टन रोहित की नई नवेली दुल्हन का स्वागत करते हैं ”  उसके आकर्षक व्यक्तित्व के धनी पति सी.ओ. कर्नल राजन ने काँधे पर हाथ रखते हुए कहा|
नीलू अचानक मानों नींद से जगी हो ”इस नए रंग के माहौल में  तुम्हारा स्वागत है शीना”|
“थैंक्स मिसेज राजन” जमीन में गड़ती हुई सी शीना के मुँह से बस इतना ही निकला |
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(43). सुश्री ममता जी
.
उसकी चीख निकल गयी , हर तरफ केवल काला सफ़ेद रंग , घर , पुस्तकें , साड़ी ,आँगन, पेड़-पौधे ,पशु -पक्षी ,उसने आसमान की और देखा वहां भी सूरज की किरणें एल ई डी बल्ब की भांति दूधिया थीं। सारे रंग जाने कहाँ उड़ गए थे ऐसा मालूम हो रहा था जैसे पुराने समय की श्वेत -श्याम फिल्म चल रही हो। तभी उसकी नजर एक वृद्धा माँ पर पड़ी जिसने सारे रंग अपनी मुट्ठी में कैद कर रखे थे। वो पास गयी और उस वृद्धा माँ की मुट्ठी खोलने की कोशिश करने लगी मगर वृद्धा माँ का आकार बड़ा होता गया और वह खुद उसके सामने छोटी हो गयी। रंगो को वापिस लाने की उसकी कोशिश बेकार हो गयी उसकी जिंदगी बदरंग हो गयी ये सोच वह फिर से के बार कोशिश करने पहुंची मगर वृद्धा माँ का स्वरुप बड़ा होता ही गया। वह लाचार हो गयी और उसने अपने आप को माँ को सौंप दिया। तभी जाने कहाँ से एक छोटा सा बच्चा के उसके सामने आया और देखते ही देखते वह युवक बन गया वृद्धा माँ नें मुट्ठी खोल दी और सभी रंग फ़्लैश बैक की तरह वापस आ गए वृद्धा माँ अचानक से नवयौवना में बदल गयी उसने तिरंगी साड़ी पहनी थी। ........ उसकी आँख खुल गयी। और उठी तो देखा उसका लड़का अपने शहीद पिता के चित्र पर फूल चढ़ा रहा था। उसकी आँखों में ना जाने कितने रंग फ़ैल गए।
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अभी तो लगे हाथ ये सुधार भी करवा लीजिए , कांता जी :
( १) आपके इस तटस्थता = आपकी इस तटस्थता ( यहां आप देखेंगी कि "तटस्था " स्त्रीलिंग है )
( २ ) कुसुमा देवी जी वाली केस = कुसुमा देवी जी वाले केस ( यहां आप देखेंगी कि "केस " स्त्रीलिंग नहीं है )
( ३ )यही खुराक अपनी कुसुमा देवी का = यही खुराक अपनी कुसुमा देवी की ( " खुराक " शब्द हरियाणा में स्त्रीलिंग होता है )
( ४ ) "फालतू का चर्चा = "फालतू की चर्चा ( यहां आप देखेंगी कि "चर्चा " स्त्रीलिंग है )
( ५ ) (वह) तो आप पर भरोसा करती है। आपके इस तटस्थता से, क्या (उन) पर असर नहीं पडेगा? " इस पंक्ति में आपके शब्द, जो मैंने बब्रेक्ट में बंद कर दिए, पर गौर कीजिए : यहाँ "वह " एकवचन है और आपकी वही कुसुमा चार कदम चलते ही " वे " यानि बहुवचन बन जाती है। अगर आप सम्मान दे कर कुसुमा को 'वे' कह रही हैं , तो शुरू में 'वह' कह अपमान मत कीजिए। वहां आप उन्हें 'वह' की जगह 'वे' कहिए।
( ६ ) दरवाजे पर बँधा मेरा टॉमी, दूध-रोटी और जरा सी पुचकार ...., इस पंक्ति में आप तीन चीजें गिना रही हैं ( टॉमी, दूध-रोटी और जरा सी पुचकार ) जबकि आप कहना यह चाहती थीं कि -- दरवाजे पर बंधे मेरे टॉमी को देखिए। दरवाजे पर बंधे मेरे टॉमी को देख रहे हैं ? उसे चाहिए सिर्फ दूध-रोटी और जरा सी पुचकार
( ये तो थीं भाषा की भूलें। रचना के ताने-बाने को आप चाहें तो अभी और भी सुंदर बना सकती हैं , सम्पादन करके। शुक्रिया )

ओबीओ पर प्रकाशित होना ही अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्‍िध है और विश्‍व के एकमात्र लाइव गोष्‍ठी के संकलन में स्‍थान पाना भी अपने आप में बहुत बड़ा सम्‍मान है। मैं सम्‍माननीय मंच का आजीवन शुक्रगुजार रहूंगा जिसने मुझे लिखने के लिए साकारात्‍मक परिवेश प्रदान किया। मैं आदरणीय प्रधान संपादक श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री गणेश जी बागी व श्री सौरभ पांडे जी का भी शुक्रगुजार हूं जिन्‍होनें मुझे सदैव उत्‍साहित किया। पिछले दो आयोजनों से सक्रिय रूप से भाग न लेने को मैं अपनी बदकिस्‍मती ही समझता हूं, परन्‍तु प्रतिकूल हालातों की वजह से मैं मजबूर था। इस आयोजन का हिस्‍सा न बन कर मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि जैसे मैंनें बहुत कुछ 'मिस' कर दिया है। मैं आयोजकों व सभी सहभागियों को दिली मुबारकबाद देता हूं।

हमने मंच पर आपकी कमी को बड़े शिद्दत से महसूस किया है इस बार आदरणीय रवि जी।  सादर। 

आदरनीय  योगराज प्रभाकर जी 

प्रणाम. / सब से  पहले इस सफल आयोजन के लिए बहुत-बहुत बधाई./ आज मैं इस  की समस्त लघुकथाएँ पढ़ गया. कारन, इस बार मैं इस आयोजन में भाग नहीं  ले पाया था. अपने भाई साहब की बीमारी की वजह से अहमदाबाद था. लघुकथा लिखना व पोस्ट करना संभव नहीं था. जिस का मुझे दुःख है, मगर ख़ुशी भी है कि इस बार एक जरुरी काम किया जो शायद लघुकथा लिखने से ज्यादा महत्व का था. 

सभी लघुकथाएं बहुत अच्छी व एक से बढ़ के एक रही. इन के विभिन्न रंग देखा कर मन को सुखद अनुभूति हुई. इस लिए सभी लघुकथाकारों को मेरी ओर से बधाई.

हार्दिक आभार आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जीI आशा है कि अगले आयोजन में हम सब आपकी उपस्थिति से अवश्य लाभान्वित होंगेI  

मोहतरम जनाब योगराज साहिब ,लघुकथा नंबर 10 की कामयाब निज़ामत और इतनी फुर्ती में किये  गए बेहतर कलेक्शन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

हार्दिक आभार आ० तस्दीक अहमद खान साहिब

पूज्य योगराज
सादर वन्दे!
आपसे विनम्र निवेदन है कि आप क्रम 24 पर मौजूद पूरी रचना को ही इसके परिष्कृत रूप से प्रतिस्थापित कर कृतार्थ करें।

अमन ख़ान 'अमनपरस्त'

एक बड़े और खतरनाक मंसूबे के साथ मुल्क में दाखिल हुआ वह।पूरी तरह प्रशिक्षित था।शातिर भी और बेहद चालाक भी।पैसों और हथियारों का भी उसके लिए पूरा बन्दोबस्त था।मुल्क में आकर काफी लम्बा समय गुज़ारा और मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में अपने सिपाही तैयार किए।मुल्क के ख़ुफ़िया तन्त्र को अंदेशा हुआ तो गुप्त रूप से उसके पीछे पड़ गया और वह कारनामे को अंजाम दे पाता,उससे पहले ही पकड़ा गया।हिरासत में -
"तुम लोग कौन हो?"
"हम हैं मज़हब के सिपाही।" बेफिक्र अंदाज़ में बोला।
"अच्छा!चाहते क्या हो तुम लोग?"
"पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना।"
"एक रंग में रंगना..?कौन से रंग में रंगना चाहते हो तुम दुनिया को?"
"हरे रंग में।" उसकी आँखों में चमक थी।
"ये कौन सा तरीका है तुम्हारा ?"
"हमारा यही तरीका है और यक़ीनन हम इसी तरीके से अपने मकसद में कामयाब होंगे।"
"तुम दुनिया को हरे रंग में नहीं लाशों और घायल जिस्मों से रिसते हुए खून के लाल रंग से रंग रहे हो।क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता?"
"हा हा हा हा यह तुम्हारा नज़रिया है।"
"तो तुम लोगों का नज़रिया क्या है?"
"हरे रंग के फैलाव और हिफाज़त के लिए लाल रंग के छींटे जरुरी हैं।फिर वे दूसरे लोगों के जिस्म से हों या हमारे ।"
"पर हम लोग ऐसे कारनामों में तुम जैसों को क़ामयाब नहीं होने देंगे।"
"अरे साहब!हम लोग क़ामयाब भी आप ही के मुल्क के बाशिंदों की मदद से ही होते हैं।"
"मतलब?"
"हम जैसों का किसी भी मुल्क में आसानी से घुसना उस मुल्क की सरहदों के निगेहबानों की मदद से ही होता है।बेरोजगारी और जल्दी पैसा कमाने की ललक नौजवानों को स्लीपर सेल बनाने में हमारी मदद करता है।"
"कुछ भी हो। अगर यहाँ कुछ लोग जैसा तुम बता रहे हो ऐसे हैं तो मुल्कपरस्ती भी यहां जर्रे-जर्रे में कायम है।पकड़े गए न तुम और तुम्हारे स्लीपर सेल।"
"हाँ पकड़े गए।पर हरे रंग को कायम करने की यह जंग और उसका दौर खत्म नहीं हुआ।जब तक ये रंग जहां में कायम नहीं हो जाता हम न चैन से बैठेंगे और न हुकूमतों को बैठने देंगे।"
"नाम क्या है तुम्हारा?"
"अमन ख़ान 'अमनपरस्त'।"
"हैंsssss! किसने रखा यह नाम?"
"हमारे नेक दिल वालिद साहब ने रखा था।"
"तुम्हारे वालिद साहब हरे रंग की सच्ची चमक के क़द्रदानों में से एक हैं।हैं चन्द लोग जो इस अमनपरस्त और इंसानियत परस्त चमक को लगातार नुकसान पहुंच रहे हैं।सोचो!कौन हैं वे लोग?"
वह निःशब्द था।

यथा निवेदित तथा प्रस्तापित

आभार श्रद्धेय गुरु जी।सादर नमन।
सभी रचनाकारों को इन शानदार लघुकथाओं के लिए बहुत बहुत बधाई और कार्यक्रम की अपार सफलता के लिए योगराज जी को कोटि कोटि साधुवाद।

हार्दिक आभार भाई धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी

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