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वरिन्द्र जी लाजवाब लघुकथा के लिए बधाई कबूल करें
गुनाह की बुनियाद उसी दिन पद जाती है जब घर का कोई गुनाह पर भी पीठ थपथपाता है | बहुत सुंदर और लाजवाब लघु कथा के लिए बहुत बहुत्बधाई श्री वीरेंदर वीर मेहता जी
असुरक्षित बुनियाद....(लघुकथा)
“सुनो!! यह समझदारी नहीं है, मैं यहाँ नौकरी में व्यस्त और तुम वहां होस्टल में. फिर अभी तुम्हारी पूरे एक बर्ष की पढ़ाई भी बाकी है. वैसे भी हमारी शादी को अभी एक माह ही तो हुआ है, हम बच्चा बाद में भी....”
“ मैं सब समझती हूँ, आज दोपहर को ही मेरी फोन पर मम्मी से बात हुई है. उन्होंने यही कहा कि बेटी जैसे तैसे एक बच्चा पैदा कर ही लेना. जीवन में बच्चे का ही आसरा होता है. सुनो! मेरी मम्मी ने हम बच्चों के ही सहारे जीवन गुजारा है वरना हमारे पापा तो अक्सर बाहर ही नौकरी में रहे...”
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
आदरणीय जितेन्द्र जी, बढ़िया लघुकथा हुई है. हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति पर. रचना पर पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर
पुनः उपस्थित हुआ हूँ लेकिन जिस बाबत कहना चाहता था आदरणीय श्रीमाली जी संकेत कर चुके है. इसलिए पुनः इस बढ़िया लघुकथा पर हार्दिक बधाई.
आ जितेन्द्र जी, बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा कही है आप ने. //मेरी मम्मी ने हम बच्चों के ही सहारे जीवन गुजारा है वरना हमारे पापा तो अक्सर बाहर ही नौकरी में रहे...”//
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