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अहसास की ग़ज़ल : मनोज अहसास

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वो सिलसिला मिला ही नहीं जो जुड़ा रहे।
हम सबके होके दोस्तो सबसे जुदा रहे।

दीवारें आंधियों का असर सह रही है पर,
ये देखना है घर मेरा कब तक खड़ा रहे।

टुकड़े तुम्हारी याद के दिल में समेटकर,
सारे जहां के रिश्तों से हम बावफ़ा रहे।

बचपन से ही उदास रही है मेरी नज़र,
दो चार रोज साथ तेरे खुशनुमा रहे।

तेरे क़रीब कौन है इसका मलाल क्या,
मेरे लबों पर बस तेरे हक़ में दुआ रहे।

माना के अब वजूद बुलंदी पे है तेरा,
ये खुद से पूछ लेना कि हम तेरे क्या रहे।

कर दे तेरी नजर से खुदा हमको लापता,
तू सारी उम्र सब में हमें ढूँढता रहे।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 26, 2021 at 8:55am

मुहतरम जनाब मनोज अहसास जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। जनाब चेतन प्रकाश जी के मशविरे क़ाबिल ए ग़ौर हैं।

'मेरे लबों पर बस तेरे हक़ में दुआ रहे'   यह मिसरा 'पर' शब्द की वज्ह से बह्र में नहीं है। सादर। 

Comment by Chetan Prakash on July 26, 2021 at 8:04am

आदाब, मनोज अहसास, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है! कुछ जगहों पर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा, यथा  (१) पांचवें शे'र का सानी मिसरा, " मेरे लबों पर बस तेरे हक़ में दुआ रहे " इसमें पर के स्थान पर 'पे' बेहतर होता! (२ ) छठे शे'र का सानी, " ये खुद से पूछ लेना हम तेरे क्या रहे ", में 'ये' की बजाए 'यह' अपेक्षाकृत बेहतर विकल्प रहता! सादर.. 

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