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अस्तित्व -- डॉo विजय शंकर

विशालता - सूक्ष्मता
का अनूठा संगम हैं प्रकृति,
हाथी भी है , चींटी भी है,
सूक्ष्म जीव , जीवाणु ,
कीट , कीटाणु भी हैं
दोनों का भोजन है ,
भूखा कोई नहीं है ,
इंसान को समझो ,
उसे न्यून मत करो ,
इतना न्यून तो
बिलकुल मत करो
कि वह सूक्ष्म हो जाए ,
और तुम्हें दिखाई भी न दे ,
कीटाणु की तरह ,
रोगाणु की तरह ,
रहेगा तब भी वह समाज में,
सोचो , क्या करेगा ?
समाज को ही रोगी करेगा।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on July 16, 2016 at 2:34pm
आली जनाब डॉ.विजय शंकर जी आदाब,कितनी खूबसूरती से आप अपनी बात को कविता में ढाल देते हैं कि मुग्ध कर देती है आपकी रचना,ढेरों बधाई स्वीकार करें इस प्रस्तुति पर ।
Comment by Rahila on July 16, 2016 at 12:49pm
वाकई रोगाणु ही बन गए हैं कुछ इंसान।और बीमार कर के रख दिया समाज को।कुछ स्वार्थी हैं, कुछ राजनीतिज्ञ तोकुछ की प्रवृति ही अपराधिक है।बहुत सुंदर चिंतन।बहुत बधाई सर जी!सादर

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