2×15
एक ताज़ा ग़ज़ल
वो कहते हैं चाहत कब थी वो इक झूठा सपना था
मुझको भी वो भूलना होगा जो कुछ मैंने सोचा था
इससे बेहतर खुद को समझाने की बात नहीं कोई
जो कुछ किस्मत में लिक्खा था वो तो आखिर होना था
कुछ सालों से मैंने खुद को हँसते हुए नहीं देखा
कुछ सालों मैंने तेरी झूठी मुस्कान को देखा था
सोच समझ वाले लोगों की कुछ भी समझ नहीं आया
जाने कौन सा योग था जो मेरी कुंडली में बैठा था
तरकीबें नाकाम रही सब दुख से तुझे बचाने की
दुनिया की हर राह पता थी दर-दर सर भी पटका था
बंद गली के सन्नाटे में जैसे कदमों की आहट
मेरे मन में तेरा आना शायद कुछ कुछ ऐसा था
मेरे मालिक मिला है क्या क्या इतना तो बतला जाते
मेरे टूटे दिल को तुमने सौ हाथों से लूटा था
बाहर गहरा सन्नाटा है अंदर हलचल का मौसम
वो लिखना मुमकिन ही नहीं था जो कुछ मैंने सोचा था
वीर बताने वालों खुद को क्या इसका अहसास नहीं
जिसको तुमने मिटा दिया है वो भी किसी का बेटा था
अपने अपने सच की रक्षा करने वालों याद रहे
इस मिट्टी का एक ही सच था हर सच से जो सच्चा था
आज शिकायत लाख तुझे पर आखिर यही हकीकत है
अपनी आंखों से तुमने 'अहसास' का सपना देखा था
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय समर कबीर साहब
आपकी बहुमूल्य इस्लाह के बिना ग़ज़ल अधूरी रह जाती है
आशीर्वाद बनाये रखिये
सादर
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'आज शिकायत लाख तुझे पर आखिर यही हकीकत है
अपनी आंखों से तुमने 'अहसास' का सपना देखा था'
इस शैर में शुतरगुरबा का दोष देखें ।
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