समय के साथ भी सीखा गया है ।।
ये गुजरा दौर भी बतला गया है ।।
मेरी मजबूरियां अब मत गिनो तुम ।
मेरे संग हो तो सब देखा गया है ।।
सभी उस्ताद बनकर ही नहीं हैं।
मुझे अधभर में ही रख्खा गया है ।।
ये तेरा प्रेम कब छूटेगा मुझसे ।
मेरे चहरे में ये बस सा गया है ।।
मेरे भी चाहने वाले मिलेंगे।
मुझे कहकर यही बिछड़ा गया है ।।
कभी वो इन्तेहाँ मेरा भी ले ले।
जो मंजिल की तरफ रस्ता गया है।।
सलोना मुस्कुराता एक चहरा ।
मुकम्मल झूठ पर पहना गया है।।
जमाना क्या कहेगा क्या सुनेगा ।
नसीहत को सदा रौंदा गया है।।
कोई कमजोर तबक़ा कब उठा है ।
सियासी खेल पर खेला गया है।।
आमोद बिंदौरी / मौलिक अप्रकाशित
Comment
अच्छा प्रयास है गजल का ... आदरणीय लोगों की बातें गिरह बाँध लें ... विचारों को धार खुद मिलेगी ...
आ सलीम साहब आदाब
जी सर अरकान गलत हुआ है/
मुझे फ़ऊलुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन समझ आई थी
मुझसे रुक्न बनाने में गलती हुई,मार्ग दर्शन के लिए शुक्रिया सर , अगली बार से रुक्न अरकान परिवार की पहचान पर भी ध्यान दूंगा
आ समर दादा प्रणाम
जी दादा कोशिश तो हर बार करता हु की रचना में कमियां को कम क्र पाउ पर ऐसा अल्पज्ञान के कारण हो नहीं प् है। बहर भेद, शिल्प , व्याकरण और दोष के साथ अपना कहन सुधारने का लक्ष में हूँ।
जनाब आमोद बिंदौरी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
हमेशा की तरह शिल्प और व्याकरण के दोष हैं कई अशआर में,उन पर क़ाबू पाने का प्रयास करें ।
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