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"बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ"

ग़ज़ल

बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ

मैं नफ़रतों का ही क़िस्सा तमाम करता चलूँ

अब आख़िरत का भी कुछ इन्तिज़ाम करता चलूँ

दिल-ओ-ज़मीर को अपने मैं राम करता चलूँ

जहाँ जहाँ से भी गुज़रूँ ये दिल कहे मेरा

तेरा ही ज़िक्र फ़क़त सुब्ह-ओ-शाम करता चलूँ

अमीर हो कि वो मुफ़लिस,बड़ा हो या छोटा

मिले जो राह में उसको सलाम करता चलूँ

गुज़रता है जो परेशान मुझको करता है

तेरे ख़याल से कैसे कलाम करता चलूँ

"समर"हयात का मक़सद बना लिया है यही

चलन वफ़ा का ज़माने में आम करता चलूँ

"समर कबीर"

मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on September 1, 2018 at 8:04pm

जहाँ जहाँ से भी गुज़रूँ ये दिल कहे मेरा

तेरा ही ज़िक्र फ़क़त सुब्ह-ओ-शाम करता चलूँ
वाह आदरणीय समर कबीर साहिब वाह कितने खूबसूरत अहसासों के अशआर हैं। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई।

Comment by mirza javed baig on September 1, 2018 at 7:57pm

मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब सलाम पैश करता हूं ।

उम्दा ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 1, 2018 at 7:33pm

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । इस बेहतरीन गजल के लिए कोटि कोटि बधाई ।

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