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वो बेबसी का कहर देखते हैं

वो बेबसी का
कहर देखते हैं
हम भी अपना
शहर देखते हैं

उतर गया है
पानी सैलाब का
मिट्टी से सना
घर देखते हैं

शर्म, हया, अना
कहाँ बची है
झुक के सभी
दीवारो-दर देखते हैं

घोल दी गई कुछ
इस तरह मिठास
ज़ुबाँ में ज़हर का
असर देखते हैं

इस उम्र न आओगे
लौट कर यहाँ
हम न जाने किसकी
डगर देखते हैं

मौलिक एवम अप्रकाशित
सुधेन्दु ओझा

Views: 318

Comment

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Comment by Samar kabeer on August 27, 2018 at 11:34am

जनाब सुधेन्दु ओझा जी आदाब,अच्छी कविता है, बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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