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उससे नज़रें मिलीं हादसा हो गया (तरही)

212 212 212 212

****************

उससे नज़रें मिलीं हादसा हो गया,
एक पल में यहाँ क्या से क्या हो गया ।

ख़त दिया था जो कासिद ने उसका मुझे,
"बिन अदालत लगे फ़ैसला हो गया" ।

दरमियाँ ही रहा दूर होकर भी गर,
जाने फिर क्यूँ वो मुझसे ख़फ़ा हो गया ।

गर निभाने की फ़ुर्सत नहीं थी उसे,
खुद ही कह देता वो बेवफ़ा हो गया।

दर्द सीने में ऱख राज़ उगला जो वो,
यूँ लगा मैं तो बे-आसरा हो गया ।

****

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Harash Mahajan on April 29, 2018 at 10:52am

आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी आदाब ।

ग़ज़ल पर आपकी शिरक़त और उस पर आपकी उत्साहवर्धक 

टिप्पणी के लिये दिली शुक्रिया सर ।

सादर ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 29, 2018 at 9:29am

आ. हर्ष जी 
अच्छा प्रयास है ..ग़ज़ल का 
मतले  के मिसरों में रब्त कम लगा..
ज़हन का वज़'न २१  है .. 
गर निभाने की उनको थी फुरसत नहीं,.. मिसरा आम बोलचाल की भाषा के करीब होना चाहिए ...यूँ देखें 
गर निभाने की फ़ुर्सत नहीं थी उन्हें  वैसे ऊपर उन को और नीचे हो गया आने से शुतुरगुर्बा की सूरत बन रही है ..
ग़ज़ल थोडा और चिन्तन  माँग रही है .. यह अभ्यास से ही  होगा और  सबसे अच्छा अभ्यास है स्थापित शाइरों को पढ़ना और उनके मिसरों के ढंग को आत्मसात करना.
आप की लगन देख  कर भरोसा मजबूत होता है 
शुभ  भाव 

Comment by Mohammed Arif on April 29, 2018 at 7:47am

आदरणीय हर्ष महाजन जी आदाब,

                       बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी अमूल्य राय देंगे ।

कृपया ध्यान दे...

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