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इक शाम दे दो ...

तन्हाई के आलम में
न जाने कौन
मेरे अफ़सुर्दा से लम्हों को
अपनी यादों की आंच से
रोशन कर जाता है
लम्हों के कारवाँ
तेरी यादों की तपिश से
लावा बन
आँखों से पिघलने लगते हैं
किसी के लम्स
मेरी रूह को
झिंझोड़ देते हैं
अँधेरे
जुगनुओं के लिए
रस्ते छोड़ देते हैं
तुम अरसे से
मेरे ज़ह्न में पोशीदा
इक ख़्वाब हो
मेरे सुलगते जज़्बात का
जवाब हो
अब सिवा तेरी आहटों के
कोई आहट नहीं सुहाती
चली भी आओ
कि इन्तिज़ार की अब
इन्तिहा हो गयी
मुन्तज़िर हूँ जिस लम्हे का
उस लम्हे को अंजाम दे दो
मेरी शाम को
इक नाम दे दो
मेरी
दीवानगी को
अपनी
इक शाम दे दो

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 435

Comment

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Comment by Sushil Sarna on December 28, 2017 at 6:25pm

आदरनीय महेन्द्र कुमार जी सृजन आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभारी है। नेट प्रॉब्लम के कारण आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।

Comment by Sushil Sarna on December 28, 2017 at 6:24pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... प्रस्तुति को अपनी स्नेहाशीष से मान देने का दिल से आभार। नेट प्रॉब्लम के कारण आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।

Comment by Sushil Sarna on December 28, 2017 at 6:23pm

आदरणीय नादिर ख़ान साहिब , आदाब . प्रस्तुति की आत्मीय सराहना एवं सुझाव के लिए का दिल से आभार। नेट प्रॉब्लम के कारण आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।

Comment by Mahendra Kumar on December 27, 2017 at 10:31am

अच्छी भावपूर्ण कविता है आ. सुशील सरना जी. हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.

Comment by Samar kabeer on December 26, 2017 at 2:09pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत सुंदर और जज़्बाती कविता,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

Comment by नादिर ख़ान on December 25, 2017 at 8:04pm

लम्हों के कारवाँ 
तेरी यादों की तपिश से 
लावा बन 
आँखों से पिघलने लगते हैं ... सुंदर भावपूर्ण रचना हुयी है आदरणीय सुनील सरना जी

जज़्बात अपने आप में बहुवचन है  

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