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ग़ज़ल- सर पे मेरे तभी ईनाम न था।

बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

काबिले गौर मेरा काम न था
सर पे मेरे तभी ईनाम न था।

मैं जिसे पढ़ गया धड़ल्ले से,
वाकई वो मेरा कलाम न था।

हाट में मोल भाव क्या करता,
जेब में नोट क्या छदाम न था।

लोग मुँहफट उसे समझते थे,
जबकि वो शख्स बेलगाम न था।

गाँव के गाँव बाढ़ से उजड़े
बाढ़ का कोई इन्तजाम न था।

सर झुकाया नहीं कभी उसने,
वो शहंशाह था गुलाम् न था।

उसका मालिक तो बस खुदा ही था,
घर में जिनके दवा का दाम न था।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 19, 2017 at 7:54pm

आदर्णीय महेन्द्र कुमार जी ग़ज़ल पसन्दगी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 19, 2017 at 7:52pm

आदर्णीय समर कबीर साहब जी उचित मार्गदर्शन के लिये सादर आभार।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 19, 2017 at 7:50pm

आदर्णीय ब्रजेश कुमार ब्रज साहब ग़ज़ल पसन्दगी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 19, 2017 at 7:48pm

आदर्णीय कालीपाद प्रसाद जी ग़ज़ल सराहना के लिये सादर आभार

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 19, 2017 at 7:46pm

आदर्णीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी ग़ज़ल सराहना के लिये सादर आभार

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on December 19, 2017 at 7:40pm

आदर्णीय अफरोज सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by Ajay Tiwari on December 19, 2017 at 12:59pm

आदरणीय राम अवध जी, खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. 'छदाम' हिदी में पुलिंग ही होता है.सादर.   

Comment by Mahendra Kumar on December 18, 2017 at 10:11pm

आ. राम अवध विश्वकर्मा जी, आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. गुणीजनों का संज्ञान लें. सादर.

Comment by Samar kabeer on December 18, 2017 at 2:36pm

'सर पे मेरे तभी इनआम न था'

यूँ किया जा सकता है ।

Comment by Samar kabeer on December 18, 2017 at 2:33pm

जनाब राम अवध जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

गुणीजनों की बातों का संज्ञान लें ।

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