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अब भी क़ायम है(ग़ज़ल)- बलराम धाकड़

१२२२,१२२२,१२२२,१२२२

दिलों पर कुछ ग़मों की हुक़्मरानी अब भी क़ाइम है,
कि निचली बस्तियों में सरगरानी अब क़ाइम है।

हक़ीक़त है कि उनके वास्ते सब कुछ किया हमने,
मगर औरत के लव पर बेज़ुबानी अब भी क़ाइम है।

मैं शादी तो करुँगी, मह्र, वालिद आप रख लेना,
कि अपनी बात पर बिटिया सयानी अब भी क़ाइम है।

यक़ीनन छोड़ दी हम सबने अब शर्मिन्दगी लेकिन,
हया का आँख में थोड़ा सा पानी अब भी क़ाइम है।

धड़कना दिल ने कुछ कम कर दिया, इस दौर में लेकिन,
लहू के चंद क़तरों में रवानी अब भी क़ाइम है।


मुख़ालिफ़ ज़ुल्म के कुछ लोग जो आए हैं सड़कों पर,
ये जोख़िम ये बताता है, जवानी अब भी क़ाइम है।

ये सच है, मिल गई है उसमें अब बारूद की कुछ बू,
मगर घाटी में खु़शबू जाफ़रानी अब भी क़ाइम है।

कि धरती की हरीरी छीन ली अपनी तरक्क़ी ने, 
मग़र अम्बर की रंगत आसमानी अब भी क़ाइम है।

हमारे गाँव ने ख़ुद को बहुत महफ़ूज़ रक्खा है,
रवायत हर पुरानी से पुरानी अब भी क़ाइम है।

ज़मीनें बेच दीं सब, तर्बियत सारी बचा ली है,
हमारे पास पुरखों की निशानी अब भी क़ाइम है।

मौलिक/अप्रकाशित।

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Comment

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Comment by Balram Dhakar on November 3, 2017 at 11:25am
आदरणीय अफ़रोज़ जी, बहुत बहुत धन्यवाद।
सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 3, 2017 at 10:06am

अच्छी ग़ज़ल कही है आद० बलराम जी . मतले में ईता दोष है गौर कीजिये 

लव-लब 

यक़ीनन छोड़ दी हम सबने अब शर्मिन्दगी लेकिन,
हया का आँख में थोड़ा सा पानी अब भी क़ायम है।---उला में जब यकीनन कह रहे हैं तो सानी में अब भी कायम है ---क्या विरोधाभास नहीं लग रहा 

ये सच है, मिल गई है उसमें अब बारूद की कुछ बू,-----ये सच है मिल गई उसमे है अब बारूद की कुछ बू ---एसा कर  लें 
मगर घाटी में खु़शबू जाफ़रानी अब भी क़ायम है।----बहुत सुंदर शेर 

नीचे के दोनों शेर में तकाबुले रदीफ़ आ रहा है 

थोड़े से संशोधनों के पश्चात ग़ज़ल निखर उठेगी 

बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by narendrasinh chauhan on November 2, 2017 at 5:48pm

सुंदर रचना

Comment by vijay nikore on November 2, 2017 at 3:20pm

//ज़मीनें बेच दीं सब, तर्बियत सारी बचा ली है,
हमारे पास पुरखों की निशानी अब भी क़ायम है।//

बहुत अच्छी गज़ल कही है। बधाई। यदि शब्दों के मान्य हिन्दी में लिख दें तो और भी अच्छा होगा।

पुन: बधाई।

Comment by Mohammed Arif on November 2, 2017 at 2:26pm
आदरणीय बलराम धाकड़ जी आदाब,ग़ज़ल में दर्द भी है,गाँव भी है, चुभन भी है,परर्यावरणीय संचेतना भी है । कुल मिलाकर बेहतरीन ख़्यालों की फुलवारी । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
Comment by Afroz 'sahr' on November 2, 2017 at 1:54pm
आदणीय बलराम धाकड़ जी इस रचना पर बधाई आपको,,,

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