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हैं वफ़ा के निशान समझो ना (प्रेम को समर्पित एक ग़ज़ल "राज')

२१२२ १२१२  २२

खामशी की जबान समझो ना

अनकही दास्तान समझो ना

 

सामने हैं मेरी खुली बाहें

तुम इन्हें आस्तान समझो ना

 

ये गुजारिश सही मुहब्बत की

तुम खुदा की कमान समझो ना

 

स्याह काजल बहा जो आँखों से

हैं वफ़ा के निशान  समझो ना 

 

बस  गए हो मेरी इन आँखों में

इनमें  अपना जहान  समझो ना

 

झुक गया है तुम्हारे कदमों में

ये मेरा आसमान समझो ना

 

खींच लाती कोई कशिश हमको   

रब्त है दरमियान समझो ना  

आस्तान =भगवान् की मूरती तक पंहुचने का द्वार 

कमान=हुक्म /आदेश 

---मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on August 21, 2017 at 5:25pm

आद० सुशील सरना जी आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |

Comment by Sushil Sarna on August 21, 2017 at 4:32pm

झुक गया है तुम्हारे कदमों में
ये मेरा आसमान समझो ना
वाह आदरणीया राजेश कुमारी जी बहुत ही शानदार अशआर कहे है आपने। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।

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