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ग़ज़ल : भइ, आप हैं मालिक तो कहाँ आपसे तुलना

२२१ १२२१ १२२१ १२२ 

 

पिस्तौल-तमंचे से ज़बर ईद मुबारक़ 

इन्सान पे रहमत का असर, ईद मुबारक़
 
पास आए मेरे और जो ’आदाब’ सुना मैं
मेरे लिए अब आठों पहर ईद मुबारक़
 
हर वक़्त निग़ाहें टिकी रहती हैं उसी दर
पर्दे में उधर चाँद, इधर ईद मुबारक़ !
 
जिस दौर में इन्सान को इन्सान डराये
उस दौर में बनती है ख़बर, ’ईद मुबारक़’ !
 
इन्सान की इज़्ज़त भी न इन्सान करे तो
फिर कैसे कहे कोई अधर ईद मुबारक़ ?
 
जब धान उगा कर मिले सल्फ़ास की पुड़िया
समझो अभी रमज़ान है, पर ईद मुबारक़ !
 
भइ, आप हैं मालिक तो कहाँ आपसे तुलना
कह उठती है रह-रह के कमर.. ईद मुबारक़ !
 
तू ढीठ है बहका हुआ, मालूम है, लेकिन
सुन प्यार से.. बकवास न कर.. ’ईद मुबारक़’ ! 

  

जो बीत गयी रात थी, ’सौरभ’ उठो फिर से
कहती है ये ख़ुशियों की सहर, ईद मुबारक
*****************
-सौरभ

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 27, 2017 at 3:29pm

आदरणीय बृजेश ’ब्रज’ जी, आपने प्रस्तुति को समय और समर्थन दिया, इस हेतु हार्दिक धन्यवाद ..

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 27, 2017 at 3:19pm

हार्दिक धन्यवाद आदरणीय नरेन्द्र जी ..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 27, 2017 at 3:16pm

आदरणीय महेन्द्र कुमार जी, आपने इस प्रस्तुति को शेर-दर-शेर मान दिया इस हेतु आपका हार्दिक आभार. प्रस्तुति आपको रुचिकर लगी यह मेरे अभ्यास को सदिश रखेगा. 

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 27, 2017 at 3:14pm

//नव गीत कीतरह आपकी ग़ज़ल मुझे नव ग़ज़ल लगती है //

आदरणीय आशुतोष भाई, आपसे मिली यह विशिष्ट प्रतिष्ठा मेरे लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं. आपकी सदाशयता के प्रति हार्दिक धन्यवाद.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 27, 2017 at 1:02pm

आदरनीय सौरभ भाई , आपकी कलम से निकली एक और बेहतरीन गज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ । एक एक शेर गाइडेड मिसाइल की तरह अपने अपने लक्ष्य पर सटीक वार करने मे सक्षम हैं । पुनः बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 27, 2017 at 11:45am
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल कही आदरणीय..हर एक शे'र अपने आप में अनुपम है..सादर
Comment by narendrasinh chauhan on June 27, 2017 at 10:49am

 खूब सुन्दर रचना 

Comment by Mahendra Kumar on June 27, 2017 at 8:59am

वाह! वाह!! वाह!!! क्या शानदार ग़ज़ल कही है आपने आ. सौरभ सर. मतला-त-मक्ता मज़ा आ गया. इसमें जहाँ एक तरफ़ गहरा कटाक्ष (पहला शेर) है तो दूसरी तरफ़ रूमानियत (दूसरा व तीसरा शेर) भी. साम्प्रदायिकता के उभार वाले इस दौर में ढहती हुई मानवता की फ़िक्र को चौथे और पाँचवे शेर में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. "जब धान उगा कर मिले सल्फ़ास की पुड़िया, समझो अभी रमज़ान है, पर ईद मुबारक़!" इस शेर में जिस तरह से आपने किसानों के दर्द को उभारा वह अद्भुत है. सातवें और आठवें शेर तो आपकी विशिष्ट पहचान के द्योतक हैं. मक्ते में पहुँचकर यह ग़ज़ल बड़ी ख़ूबसूरती से आशावाद पर ख़त्म होती है. इस बेहद उम्दा ग़ज़ल पर शेर-दर-शेर के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए. छठे शेर के अलग से विशेष बधाई. सादर. 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 26, 2017 at 3:36pm
आदरनीय सौरभ सर बड़ी शिद्दत से आपका और आपकी रचना का जो इंतेज़ार था आज ख़त्म हुआ वो भी ईद के इस शानदार मौके पर नव गीत कीतरह आपकी ग़ज़ल मुझे नव ग़ज़ल लगती है इस शानदार रचना के लिए ढेर सारी बधाई सादर प्रणाम के साथ

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 26, 2017 at 11:36am

आदरणीय बासुदेव अग्रवाल ’नमन’ जी, प्रस्तुति पर आपकी उपस्थिति और आपसे मिला अनुमोदन मेरे प्रयास को सजग एवं उत्साहित रखेगा. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय 

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