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नख़्ल-ए-दिल रेगज़ार करना था-ग़ज़ल नूर की

नख़्ल-ए-दिल रेगज़ार करना था,
इक तसव्वुर ग़ुबार करना था.
.
तेरी मर्ज़ी!!! ये ज़ह’न दिल से कहे,
बस तुझे होशियार करना था.
.
वो क़यामत के बाद आये थे
हम को और इंतिज़ार करना था.
.
हाल-ए-दिल ख़ाक छुपता चेहरे से
जिस को सब इश्तेहार करना था.
.   
लुत्फ़ दिल को मिला न ख़ंजर को
कम से कम आर-पार करना था.
.
चंद यादें जो दफ़’न करनी थीं
अपने दिल को मज़ार करना था.
.
बारहा दुश्मनी!! अरे नादाँ .....
इश्क़ भी बार बार करना था.
.
शर्त यूँ थी सो हार आये हम,
पीठ पर उस की वार करना था.
.
“नूर” सच बोल कर है क्यूँ ज़िंदा,
उस को तो संगसार करना था.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on April 19, 2017 at 5:42pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,बहुत उम्दा और मुरस्सा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 19, 2017 at 5:11pm

शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब 

Comment by Mohammed Arif on April 19, 2017 at 9:37am
चंद यादें जो दफ़'न करनी थीं
अपने दिल को मज़ार करना था । वाह!वाह!!
शर्त यूँ थी सो हार आये हम
पीठ पर उसकी वार करना था । वाह!वाह!!लाजवाब शे'र है
बधाई आदरणीय नीलेश जी ।

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