नख़्ल-ए-दिल रेगज़ार करना था,
इक तसव्वुर ग़ुबार करना था.
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तेरी मर्ज़ी!!! ये ज़ह’न दिल से कहे,
बस तुझे होशियार करना था.
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वो क़यामत के बाद आये थे
हम को और इंतिज़ार करना था.
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हाल-ए-दिल ख़ाक छुपता चेहरे से
जिस को सब इश्तेहार करना था.
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लुत्फ़ दिल को मिला न ख़ंजर को
कम से कम आर-पार करना था.
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चंद यादें जो दफ़’न करनी थीं
अपने दिल को मज़ार करना था.
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बारहा दुश्मनी!! अरे नादाँ .....
इश्क़ भी बार बार करना था.
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शर्त यूँ थी सो हार आये हम,
पीठ पर उस की वार करना था.
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“नूर” सच बोल कर है क्यूँ ज़िंदा,
उस को तो संगसार करना था.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब
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