बहा तुमको लिए जाती थी जो वो धार भी हम थे
हमी साहिल तुम्हारी नाव के पतवार भी हम थे
निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था जालिम
खड़े तनकर उसी के सामने दीवार भी हम थे
मुक़द्दस फूल थे मेरे चमन के इक महकते गर
छुपे बैठे हिफाज़त को तुम्हारी ख़ार भी हम थे
किया घायल तुम्हारा दिल अगर इल्जाम भी होता
तुम्हारा दर्द पीने को वहाँ गमख्वार भी हम थे
रिवाजों की बनी जंजीर ने गर तुमको बांधा था
वहाँ मौजूद उसको काटने तलवार भी हम थे
अगर ये पूछते उससे तुम्हारा दिल भी कह देता
चुराया आँख का काजल भले शृंगार भी हम थे
ज़माने की बिछाई धूप में तपना पड़ा तुमको
मुकम्मल छाँव देने को तुम्हें अश्जार भी हम थे
कभी अपनी मुहब्बत को अगर गिनते गुनाहों में
मुक़र्रर हर सज़ा के वास्ते हक़दार भी हम थे
अगर तुम दिल्लगी से खेलते हम से तो क्या होता
तुम्हारी जीत भी हम थे तुम्हारी हार भी हम थे
--------मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जी आद० समर भाई जी नाव के पतवार ही किया है मूल पोस्ट में इधर भी क्र लूँगी आप इजाजत की क्या बात कर रहें हैं भाई जी ये बात कहके शर्मिंदा मत कीजिये आपकी समीक्षा का तो इन्तजार रहता है पोस्ट पर .आपका स्वागत है
आद० नरेंद्र सिंह जी ,ग़ज़ल आपको अच्छी लगी बहुत बहुत आभारी हूँ
सुन्दर रचना
आद० समर भाई जी ,आपको ग़ज़ल अच्छी लगी इसका दिल से शुक्रिया | आपने सही ध्यान दिलाया पतवार वाले मिसरे में --नाव के पतवार कर दूंगी ..नाव का पतवार जम नहीं रहा | दूसरे भाई जी मैं ये तो नहीं कहूँगी की ये ग़ज़ल जल्दी बाजी में कही है दरअसल एक आयोजन में रदीफ़ दिया गया था बहुत दिमाग पच्ची करनी पड़ी --भी हम थे --इस रदीफ़ पर चूंकि एक मुसलसल ग़ज़ल कही है तो इसमें तुमको या तुम्हे आना लाजमी था फिर भी कहीं कुछ हो सका तो अवश्य दुरुस्त करूंगी | आपका बहुत बहुत शुक्रिया इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहें सादर |
आद० मोहम्मद आरिफ जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया |
आद० लक्ष्मण धामी भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत बहुत आभार आपका |
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