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शंका और विश्वास के दोराहे पर 

मन में पीली धुंधली उदास गहरी

बेमाप वेदना यथार्थों की लिए

स्वीकार कर लेता हूँ सभी झूठ 

कि जाने कब कहाँ किस झूठ में भी

किसी की विवशता दिख जाए, या

मिल जाए उसकी सच्चाई का संकेत

कि जानता हूँ मैं, यह ठंडी पुरवाई

यह फैली हुई धूप नदी-झील-तालाब

सब कहते हैं  ...

वह कभी झूठी नहीं थी

ऊँची उठती है कोई उभरती कराह

स्वपनों के अनदेखे विस्तार में

विद्रोह करते हैं मेरे अन्त:स्वर

बुलबुलों-से फूट जाते हैं मेरे संक्ल्प

और लौट आता हूँ मैं उसी द्वार पर

झंकृत हुए थे जहाँ मेरी सूनी सितार के तार

और फिर कुछ हुआ, बहुत बुरा हुआ

वह तार नियति ने निर्दयता से कस दिए इतने

कि तकलीफ़ भरी छाती में है अभी तक

कोई गड्ढा गहरा ...

चारों तरफ़ बेचैनी !

झूठ ? कैसा झूठ ? ... दोष मेरा ही होगा 

 ------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 752

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Comment by नाथ सोनांचली on March 8, 2017 at 4:19pm
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन, बहुत ही प्रभावशाली सर्जना हुयी है, आपको बधाई निवेदित हैं
Comment by Samar kabeer on March 8, 2017 at 3:43pm
जनाब विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह बहुत प्रभावशाली कविता लिखी है आपने,कुछ झूट ऐसे भी होते हैं जिन्हें बोलने के लिये हम विवश होते हैं,और उस झूट में सच का जो संकेत छुपा होता है उसे साधारण आदमी नहीं संजः पाता, ये तो कवि की पैनी नज़र ही होती है जो उसे सात पर्दों के पीछे भी पहचान लेती है ।
बहुत ख़ूब वाह वाह इस बेश क़ीमती कविता के लिये दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।

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