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शराफत रास दुनिया को कहां आती है कहिए भी-ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222

वो दिन बेहतर थे जो गुजरे मेरे आवारगी में ही
शराफ़त रास दुनिया को कहाँ आती है कहिये भी

जला डाले सभी सपने ये दुनिया तो सितमगर है
कहाँ पहले कभी बिखरी थी मन पे रात की स्याही

न अब मासूमियत बाक़ी न अब बेफ़िक्री का मौसम
सहर आते थमा देती पिटारी जिम्मेदारी की

न जाने ढूँढता है क्या किधर को जा रहा है मन
भला क्यूँ रास आती ही नहीं दुनिया की ये क्यारी

गज़ब इंसानियत बदली फ़िदा है बस दिखावे पर
नज़र हर आंकती कीमत हुआ हर शख्स व्यापारी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2017 at 3:30pm
आदरणीय मिथिलेश सर जिम्मेदारी काफ़िया हो सकता है, लेकिन यहाँ काफ़िया "की" है।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2017 at 3:29pm
आदरणीय सुरेंद्र सर हार्दिक आभार और अभिवादन
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2017 at 3:28pm
आदरणीय मिथिलेश सर सुझाव के अनुरूप संशोधन किया जाएगा, सादर प्रणाम
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2017 at 3:28pm
आदरणीय आशुतोष सर बहुत बहुत आभार
Comment by नाथ सोनांचली on January 4, 2017 at 2:14pm
आद0 पंकज जी सादर अभिवादन, बढ़िया गजल हुयी है, हर शैर पर मेरी दाद हाजिर है। बधाई आपको

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 4, 2017 at 11:26am

आदरणीय पकंज जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है. हार्दिक बधाई. मतले में 'मेरी आवारगी' कहना ज्यादा ठीक होगा. 'जिम्मेदारी' काफिया हो सकता है क्या? सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 4, 2017 at 9:16am
आदरणीय पंकज जी आज के जीवन की मनोदशा को प्रदर्शित करती इस बढ़िया ग़ज़ल पर हार्दिक बधाई सादर

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