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उसके दरबार में ……………

उसके दरबार में ……………

पूजा कहीं दिल से की जाती है
तो कहीं भय से की जाती है
कभी मन्नत के लिए की जाती है
तो कभी जन्नत के लिए की जाती है
कारण चाहे कुछ भी हो
ये निश्चित है कि
पूजा तो बस स्वयं के लिए की जाती है
कुछ पुष्प और अगरबती के बदले
हम प्रभु से जहां के सुख मांगते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
उसकी चौखट पे अपना सर झुकाते हैं
अपनी इच्छाओं पर
अपना अधिकार जताते हैं
इधर उधर देखकर
प्रभु के परम भक्त होने पर इतराते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
चन्द सिक्के दान कर
महा दानी बन जाते हैं
इस काया और माया पे
किसका अधिकार है
ये भी भूल जाते हैं
जानते हैं इस नश्वर संसार में
हर शै नाशवान है
फिर भी अपनी साँसों पे
कितना अभिमान है
मंदिर जाकर शायद
भौतिक संतुष्टि तो हो जाएगी
मगर
उसके दरबार में
जब तक
अहं के ताज़ को तज कर
निस्वार्थ भाव से
सर न झुकायेंगे
न ईश
हमें मिल पायेगा
न हम
ईश के हो पाएंगे

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on December 20, 2016 at 7:21pm

आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति के भावों को अपना आत्मीय समर्थन देने का हार्दिक आभार। 

Comment by Samar kabeer on December 20, 2016 at 5:20pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत सच्ची कविता लिखी आपने,यही हो रहा है,इस बढ़िया प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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