आकाश से
गिरती है बिजली
और एक हरा भरा पेड़
अचानक बदल जाता है
एक काले ठूंठ में
भीतर तक
किसी काम नहीं आती
वह जली लकड़ी
सिवाय सुलगने के
धुवां छोड़ने के
अपने अंतिम सांस तक
और रह जाता है एक
अलिखित शिलालेख
ध्वंस का इतिहास समेटे
मौन स्तब्ध उदास जड़
निर्जीव
हमारे पूर्वज
लीपते थे गोबर से
माटी के घर
और उसकी दीवारें
क्योंकि वह मानते थे
नहीं गिरेगी
कभी आकाश से बिजली
उनके लिपे-पुते घरों में
दादी कहती थी
कि यूँ तो
बिजली नही गिरती कभी
गोबर के छोत पर
और यदि गिरती है कदाचित
तो गोबर
बन जाता है सोना
इस मान्यता पर
अब मन हंसता है
छोटा था मैं
जब गाँव के मंदिर में
गिरी थी बिजली आर्द्र आकाश से
और मंदिर के बुर्ज में
खिंच गयी थी भीषण दरार
टेढा हो गया था वह
भव्य उसका गुम्बज
जो आज भी खडा है
वैसा ही भग्न
टेढा, अपराजित
कैसे कहूं
एक बिजली
मुझ पर भी गिरी है
मेरे क्षुब्ध मन के
सुकुमार मंदिर में
किसी पथरीले
हृदयहीन आकाश से
भग्न हो गया है मेरा अस्तित्व
खिंच गयी हैं अनगिन
दरारें वपुष में
जिसे देखता है सारा संसार
मैं सोचता हूँ
अब मैं सुलगकर छोडूंगा धुआं
उस वृक्ष की भांति
जो ठूंठ हो गया था
अंतिम सांस लेने से पहले
और बन जाऊँगा
मैं भी ध्वंस का
अलिखित शिलालेख
या फिर रहेगा मेरा अस्तित्व
टेढा अपराजित
उस भग्न मंदिर की भाँति
जो खडा है अविचल
आज भी गाँव में
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
एक सामान्य मान्यता को अपने व्यकित-सन्दर्भ में देखने का उसे अभिव्यक्त करने का सफल-प्रयास |
आदरणीय डॉ गोपाल सर, बहुत बढ़िया चित्र खींचा है आपने. आँखों के आगे से तैरता हुआ गाँव का मंदिर रचनाकार की मनःस्थिति को शाब्दिक करने में सफल हुआ है. पारंपरिक रूपक को बड़ी ही संवेदनशीलता से और प्रभावकारी ढंग से कविता में बरता गया है. इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई.
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