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और फिर से इक दफ़ा-पंकज मिश्र

और फिर से इक दफ़ा इस, दिल ने धोख़ा दे दिया
सो रहा था, बेवफ़ा का, नाम सुनकर जग गया

और फिर से इश्क़ ने, तूफ़ान की सौगात दी
और हमने यूँ किया की, आज जी भर रो लिया

और फिर से इक दफ़ा हम प्रश्न लेकर हैं खड़े
दोस्ती कैसे निभेगी बोल मेरे साथिया

और फ़िर से इक दफ़ा मिलने वो आये हैं मग़र
हम कफ़न में और वो पर्दानशीं उफ़ ये हया

और फिर से इक दफ़ा पत्थर से गङ्गा बह चली
वत्स कुल में इक भगीरथ फिर हुआ पैदा नया

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 23, 2016 at 9:42am
2122 2122 2122 212

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 23, 2016 at 12:11am

आदरणीय पंकज जी, बह्र या वज्न ?

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 22, 2016 at 1:13pm
आदरणीय गिरिराज सर सादर प्रणाम। इंगित मिसरे को सही करना ही होगा। धन्यवाद

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 22, 2016 at 11:17am

आदरणीय पंकज भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।

और हमने / यूँ किया की,/  आज जी भर रो लिया   ---  इस  मिसरे मे  दूसरा रुक्न -- यूँ  किया कि , सही होगा ( की - सही नही है ) इस लिहाज़ से मिसरा बेबहर हो रहा है , देखियेगा ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 21, 2016 at 9:43am
आदरणीय सुरेंद्र जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 21, 2016 at 9:43am
आदरणीय अमोद भाई सादर आभार
Comment by नाथ सोनांचली on November 21, 2016 at 5:58am
पंकज कुमार जी बधाई है, बहुत उम्दा
Comment by amod shrivastav (bindouri) on November 20, 2016 at 6:47pm
बहुत खूब आ पंकज भाई जी
बधाई
नमन

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