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क्या गरज़ है कि अपाहिज के लिए तुम रूक्को----ग़ज़ल

2122 1122 1122 22

क्या गरज़ है कि अपाहिज के लिए तुम भी रुको
अपनी रफ़्तार की तेजी को न यूँ दफ़नाओ

ग़र तुम्हें साथ में चलने में परेशानी है
राह में छोड़ के आगे भी निकल सकते हो

अपने अंदाज़ में चलने का चलन ही है यहाँ
न मना ही है किया और न टोका तुमको

तुम चलो मैं भी मिलूँगा जी वहीँ मंज़िल पर
जाके खरगोश व कछुए की कथा फिर से पढ़ो

राह में रात भी होगी तो किधर जाओगे
मेरी ग़ज़लों की ये सौगात उजाले ले लो


मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on November 13, 2016 at 8:14pm
बहुत ख़ूब, अब ठीक है ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2016 at 4:58pm
आदरणीय बाऊजी अभी सुधार देता हूँ
Comment by Samar kabeer on November 13, 2016 at 4:48pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
मतले के ऊला मिसरे में 'रुको'शब्द को "रूक्को'कर क़ाफ़िया बनाया है आपने,है नहीं ।

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