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विष - एक क्षणिका

विष  - एक क्षणिका :

मानव
तुम तो
सभ्य हो
फिर
विषधर का विष
कहां से
पाया तुमने
क्या
सभ्य वेश में
विषधर भी
रहने लगे

सुशील सरना

मौलिक एवम अप्रकाशित 

Views: 560

Comment

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Comment by Sushil Sarna on October 14, 2016 at 1:43pm

आदरणीय  vijay nikore जी प्रस्तुति को अपने स्नेह से सम्मान देने का हार्दिक आभार।

Comment by vijay nikore on October 13, 2016 at 3:23pm

बहुत खूबी है आपके खयालों में जो आपकी रचना को अमूल्य बनाती है।

Comment by Sushil Sarna on October 11, 2016 at 8:54pm

आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी प्रस्तुति को अपने स्नेह से सम्मान देने का हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on October 11, 2016 at 8:54pm

आदरणीया  Arpana Sharma  जी प्रस्तुति में निहित भावों का मान बढाने का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on October 11, 2016 at 8:53pm

आदरणीय  Dr. Vijai Shanker जी प्रस्तुति को अपनी काव्यात्मक प्रतिक्रिया से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 11, 2016 at 11:07am
आदरणीय श्री सुशील सरना जी यथार्थ को दर्शाती सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by Arpana Sharma on October 10, 2016 at 10:31pm
यही विड़ंबना है कि विषधर सभ्य वेश में ज्यादा दिखने लगे - "आस्तीन के साँप", बहुत सुंदर क्षणिका सरना जी
Comment by Dr. Vijai Shanker on October 10, 2016 at 10:28pm
विषधर को तो
विष का पता नहीं था
मनुष्य ने विष को जान लिया
और उसे पहचान लिया ,
जब चाहा उसे इस्तेमाल किया ,
नाम उसका लिया ,
बदनाम उसे किया ,
विषधर का नाम दिया।
बधाई , आदरणीय सुनील सरना जी , सादर।

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