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मेरे हिस्से की हँसी

तुम चुरा
ना लो
मेरे हिस्से की
हँसी
इस कारण
मुस्कुराना छोड़
दिया है
दर्द ना आँखों से
छलक पाएँ
पालकों
से आँखों को
सिया है
मन्नतें माँगी
नही फिर भी
बिन माँगे झोली
भरी देखी
कसाई बना है
वक़्त सभी का
आज़ादी पर
रोक
लगी देखी
बेपरवाह सब
घूम रहे
लगता नहीं
ये घर लौटेंगे
शहर में
घूम रहे भेड़िए
सचाई पर
बेड़ियाँ
लगी देखी
अपनापन पनपता
बाँटे किससे सुख
दुख अपना
बेशुमार है आदमी
हर ओर
फिर भी
अपनो की
कमी देखी
उड़ना हर कोई
चाहता है पर
नींद मययसर
नहीं हो रही
सपनों की
कमी देखो
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 5, 2016 at 9:32pm

बढ़िया रचना | हार्दिक बधाई आदरणीया दीपू जी |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 2, 2016 at 9:16am

आ. दीपू जी , भाव अपूर्ण अच्छी रचना हुई है , बधाई ।  मयस्सर  सही शब्द है ।

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 1, 2016 at 3:06pm
आदरणीया दीपू जी सुन्दर एवं भावप्रद रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by Ashok Kumar Raktale on October 1, 2016 at 1:37pm

अपनापन पनपता
बाँटे किससे सुख
दुख अपना
बेशुमार है आदमी
हर ओर
फिर भी
अपनो की
कमी देखी.........वाह ! सुंदर भावपूर्ण रचना.बहुत बधाई. सादर.

Comment by Sushil Sarna on September 28, 2016 at 1:59pm

आ.दीपू जी इस भावपूर्ण प्रस्तुति  के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें। 

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