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आदमी गुम हो गया है ख्वाहिशों के दरमियाँ (ग़ज़ल)

2122 2122 2122 212

रास्ते कुछ और भी थे रास्तों के दरमियाँ
मंज़िलें कुछ और भी थीं मंज़िलों के दरमियाँ

बेख़याली में हुई थी गुफ़्तगू नज़रों के बीच
हो गया इक़रार लेकिन धड़कनों के दरमियाँ

क्यों रहे इंसानियत से वास्ता इंसान का
जब है दीवार-ए-सियासत मज़हबों के दरमियाँ

रिश्ते-नातों को निभाने का कहाँ है वक़्त अब
आदमी गुम हो गया है ख्वाहिशों के दरमियाँ

ये हमारी दिल की दुनिया इस क़दर वीरान है
धूल उड़ती है यहाँ पर बारिशों के दरमियाँ

जब से मेरे दर्द-ओ-ग़म सब शे'र में ढलने लगे
बाँटता फिरता हूँ इनको महफ़िलों के दरमियाँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 13, 2016 at 1:58pm

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय मेहता जी 


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 11, 2016 at 4:03pm

आदरनीय जयनित भाई , बेहतरीन गज़ल हुई है , मुबारकबाद कुबूल करें ।

Comment by Samar kabeer on September 11, 2016 at 3:11pm
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,आपकी ग़ज़ल का सफ़र सही सिम्त में हो रहा है,ये देख कर बहुत ख़ुशी महसूस होती है ।
बहुत उम्दा,शानदार,और मुरस्सा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ ढेरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

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