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गाय हमारी माता है
हमको कुछ नहीं आता है..

हमको कुछ नहीं आता है
कि, गाय हमारी माता है !

गाय हमारी माता है
और हमको कुछ नहीं आता है !?

जब गाय हमारी माता है
हमको कुछ क्यों नहीं आता है ?

गाय हमारी माता है
फिरभी हमको कुछ नहीं आता है !

फिर क्यों गाय हमारी माता है..
जब हमको कुछ नहीं आता है ?

तो फिर, गाय हमारी कैसी माता है
कि हमको कुछ नहीं आता है ?

चूँकि गाय हमारी माता है..
क्या इसलिए हमको कुछ नहीं आता है ?

यानी, हमको कुछ नहीं आता है
इसलिए कि गाय हमारी माता है ?

या फिर, गाय हमारी माता है
इसके आगे हमको कुछ आता ही नहीं है..

भाई, ये गाय हमारी कैसी माता है ?
कि, हमको कुछ आता-जाता ही नहीं है ?

गाय हमारी माता है भी ?
क्योंकि हमको तो कुछ आता ही नहीं है !

गाय हमारी माता है
अब गाय भला हमारी कैसी माता है ?

हमको कुछ नहीं आता है..
हमको कुछ क्यों नहीं आता है ?

या फिर, गाय हमारी माता है..
इसके अलावा हमको सब कुछ आता है !

या, गाय हमारी माता है..
इसके अलावा हमको कुछ नहीं आता है !

या, न गाय हमारी माता है
न हमको कुछ आता-जाता है !

या, गाय हमारी उतनी ही माता है
जितना हमको आता और भाता है !!

या, गाय हमारी कैसी माता है,
ये हमको खूब समझ में आता है !

या, गाय हमारी कितनी माता है
ये हमको ही नहीं सब को खूब समझ में आता है !
**************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 7, 2016 at 8:50pm
कहाँ से शुरू करें , अनादि काल से चली आ रही एक परंपरा को कंहाँ से शुरू करें। चलिए बॉस के कुत्ते से शुरू करते हैं , कितने कर्मचारी / अधिकारी बॉस के कुत्ते के सामने हें हें करते मिल जाएंगे , एक दायित्व की तरह , कुत्ते की तारीफ़ करते नहीं थकेंगे। उपयोगी कुत्ता भी अनादि काल से मनुष्य से जुड़ा है , वफ़ा का प्रतीक। गाय भी वैसे ही , उस समय से , जब मनुष्य यायावर - पशुपालक था , जमीन से जुड़ा नहीं था , कृषि जानता नहीं था , उस समय एक सम्पूर्ण भोजन , दूध का आश्रय , चलते- फिरते भी। समय बदला , गाय का महत्व बढ़ता चला गया ,गाय विनिमय का माध्यम बन गयी , गायों के कारण युद्ध होने लगे , गाय आय हो गयी , रक्षित हो गयी , पूज्य ( आदरणीय, मान्य , सम्पन्नता ) हो गयी। वैसे ही जैसे आज किसी किसी के लिए बॉस का कुत्ता।
फिर एक ऐसी जीवन पद्दति जिसमें पृथ्वी , आकाश, वायु , अग्नि , जल, पेड़ - पौधे और लगभग सभी पशुओं , सर्प को भी , पूजा ( एक महत्व दिया जाना ) जाता हो उसमें गाय को माँ तुल्य कह दिया जाना कदापि आश्चर्य जनक नहीं है।
रही बात गाय के रक्षित होने कि तो बॉस का कुत्ता मार के देखिये , जंगल में जाकर एक हिरन मार कर देखिये , क़ानून क्या है ,समझ में आ जाएगा।
कानून समय समय पर बदलते रहते हैं , संस्कार नहीं , गाय संस्कार से जुडी है।
गाय को माँ कह दिया तो हमें सबकुछ आ जाएगा ,मानना ऐसे ही लगता है , जैसे कोई कहे मेरे पास माँ है , मुझे सब कुछ आता है , अब मुझे कुछ पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं। फिर भी हर माँ ज्ञान प्राप्ति में एक catalist का काम करती है।
आदरणीय सौरभ पांडेय जी को एक सार्थक बिंदु उठाने के लिए धन्यवाद , सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2016 at 1:23pm

आदरणीया प्रतिभा जी, आपने उस दर्द को महसूस किया जो इस प्रस्तुति का उत्स है. माँ का अक्स तब मनोहारी लगता है जब गाय सात्विक सोच मात्र नहीं व्यावहारिक आचरण से भी लाभान्वित हुई दिखती. ऐसा तो नहीं दिखता, राजनीति ज़रूर दिखती है. 

आपने रचना को अपना समय दिया, आपका सादर धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2016 at 1:21pm

आदरणीया राहिला जी, भाव-भावनाओं के भाष्य से हम भारतीय भली-भाँति परिचित हैं. हमें खूब पता है कि प्रकृति की इकाइयों से सामंजस्य बैठाते हुए कैसे निर्वाह किया जाता है. भारतीय जीवन पद्धति का यही तो मूल है. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में एक उदारता है. एक निश्छल प्रवाह है. जब ऐसी उदारता को, ऐसी निष्छलता को शातिर अर्थ और व्यवहार मिलने लगता है तब परिस्थितियाँ विद्रूप होने लगती हैं. कोई शर्त और भाव-भावना आदमी और उसकी तमाम इकाइयों के आगे नहीं हुआ करती. होनी भी नहीं चाहिए. अपनी माँ से हफ़्तों बात तक न कर पाने वाले माँ के प्रतीकों और बिम्बों की जब बात करते हैं तो घृणा का भाव व्यापता है. 

आपने प्रस्तुति को समय दिया आपका सादर धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2016 at 1:14pm

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपने जिस गहनता से प्रस्तुति की विवेचना की है, कि यह प्रस्तुति विशेष हो गयी और मेरा प्रयास अर्थवान हो गया. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय..
शुभ-शुभ

Comment by pratibha pande on August 7, 2016 at 1:11pm

या, गाय हमारी उतनी ही माता है 
जितना हमको आता और भाता है !!..... इस माता के चर्चे हर ओर हैं क्यों कि चुनाव पास हैं और माता अपने शुभचिंतकों से दूर अक्सर पन्नियाँ खाती दिख जाती हैं ...सामयिक परिद्रश्य पर कटाक्ष करती रचना पर हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ...सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2016 at 1:10pm

अनन्य नादिर भाई, आपको मेरे प्रयास और इस वैचारिक प्रस्तुति से कुछ अर्थवान सुलभ हुआ, यह मेरे लिए भी अत्यंत संतोष का विषय है.  जैसी विसंगतियों को एक विशिष्ट समाज प्रश्रय दे रहा है वह दुःख ही नहीं, घोर घृणा का कारण है. 

हार्दिक धन्यवाद भाई. सहयोग बना रहे.

Comment by Rahila on August 7, 2016 at 1:09pm

ओह, मुझे तो पहली पंक्ति से ही बचपन की वो कविता सी याद हो आई । लेकिन पूरी कविता पढ़ी तो इसकी गम्भीरता का अहसास हुआ। बहुत खूब ध्यान दिया आपने इस मुद्दे पर। खूब बधाई। सादर नमन


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2016 at 1:06pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी, आपने मेरे कहो को मान दे कर वैचारिक संप्रेषण को सम्मानित किया है. आपका सादर धन्यवाद..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2016 at 1:05pm

आदरणीय सतविन्दर जी, आपका हार्दिक धन्यवाद कि प्रस्तुति रोचक लगी.. 

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2016 at 1:04pm

आदरणीय सुशील सरना जी, विशिष्ट शैली में मिली आपसे प्रशंसा उत्साहित भी कर रही है तो उत्तरदायी भी बना रही है.. 

हार्दिक धन्यवाद..

कृपया ध्यान दे...

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