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"जल्दी करो भाई, देर हो  हो रही मुझे , आज तुझे छोड़, तेरी माँ को अस्पताल  भी दिखा कर फिर ड्यूटी जाऊँगा ” महिंद्र ने नवीन की तरफ देखते हुए कहा । मुश्किल से  दो घंटे की छुट्टी मिली थी ,जल्दी  चलें, तीनों बाहर आए और  मोटर साईकल पर सवार हो  घर से निकल पड़े, अभी चोंक पर आ के रुके तो ट्रैफिक पुलिस के मुलाज़िम ने रोक कर एक तरफ मोटर साईकल खड़ा करके कागज़ दिखाने के लिए कहा, तब महिंद्र ने  धीमी आवाज़ से  कहा “मुलाज़िम हूँ । बीवी ठीक नहीं है इसे अस्पताल दिखाने जा रहें हैं ।”  मगर ट्रैफिक पुलिस के मुलाज़िम ने कागज़ दिखाने के लिए ज़ोर डालना जारी रखा, तब महिंद्र ने डिक्की से कागज़ निकाल मुलाज़िम की तरफ बड़ा दिए । कागज़ देखने बाद वापस करते हुए मुलाज़िम ने कहा ठीक है, पर चालान तो भरना होगा ।

“हमारे कागज़ तो पूरे हैं”, नज़दीक खड़े नवीन ने कहा 

“ट्रिपल सवारी का” मुलाज़िम ने जवाब दिया ।

“हम कहाँ चाहते थे,  देखिए ये तो हमारी मजबूरी है कि इसे हस्पताल दिखाना है, मगर वैसे तो हम दो हैं थे,ये तो औरत है” ।

,” क्या औरत सवारी नहीं होती ?  मुझे तो चालान भरना होगा” मुलाज़िम ने कहा ।

तब महिंद्र ने उसके आगे हाथ जोड़ दिए और कहा हमें  देर हो रही,

"देखो हाथ जोड़ना छोड़े और हम तो इसे सवारी ही मानते हैं, इस लिए आप को ट्रिपल सवारी का चालान  तो भरना ही होगा"  ।

साथ आई औरत कभी ट्रैफिक मुलाज़िम और कभी घर वालों कि तरफ देख रही थी, उसे समझ नही आ रहा था  कि वह बीमार इंसान है, या ट्रैफिक मुलाज़िम और घर वालों  के बीच की तीसरी सवारी ।

"मौलिक व अप्रकाशित" 

 

 

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 10, 2015 at 10:33am
हाहा! बेहतरीन लघुकथा
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2015 at 8:27am
"सुविधा में दुविधा !"- कभी कभी अच्छाई में भी कुछ बुरा/ग़लत समाया होता है। "औरत" तो येन केन प्रकारेण "दुविधा"में फँस ही जाती है।सब के लिये "सुविधा" बन सकने वाली स्त्री आख़िर क्यों "दुविधा" में फंसती/फंसाई जाती है?
बहुत अहम समस्या को उठाती उत्कृष्ट रचना के लिए आदरणीय मोहन जी को बहुत बहुत हार्दिक बधाई।

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