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"नन्दू रिक्शे वाला" - [लघु कथा]

"नन्दू रिक्शे वाला" - (लघु कथा)

"कक्का तुम काहे को परेशान हो रहे हो, रोज़ की तरह मैं तो पैदल ही चला जाता।"- हत्थू- रिक्शे पर बैठे ज़ाहिद ने एक बार फिर गुज़ारिश की ।

"न बेटा न, मैं तेरे बुलन्द हौसले को तो जानता हूँ, लेकिन सड़क के गड्ढों और गाड़ियाँ दौड़ाने वालों पर भरोसा नहीं है मुझे। विधाता ने वैसे ही तेरी आँखों को लाइलाज़ बीमारी दे दी, कुछ दिखाई देता नहीं तुझे, कोई और चोट न लगे, बस यही चाहता हूँ।" यह कहते हुए बूढ़ा नन्दू रिक्शे वाला जैसे अतीत में खो गया। ज़ाहिद को वह बचपन में अपने ही रिक्शे पर उसके स्कूल छोड़ने और लेने जाता था। कितना मिलनसार, होनहार और चंचल था। अम्मी-अब्बू का साया उठने के बाद "आर.पी." नाम की आँखों की बीमारी हो जाने से नौकरी छूट गई, बस एक बड़े भाई के भरोसे और अपने हौसले से ज़िन्दगी काट रहा है। रोज़ सुबह-शाम रास्ता टटोल-टटोल कर अल्लाह भरोसे टहलने ज़रूर जाता है। आज शायद दूर तक चला गया होगा।

"बेटा ज़ाहिद, माफ करना, मैं रोज़ तेरे आने जाने पर नज़र रखता हूँ, लेकिन आज चूक हो गई, शायद तुम ज़्यादा दूर तक चल दिये आज ?"- नन्दू ने बारिश और नालों के पानी से लबालब भरी सड़क पर रिक्शा खींचते, हांफते हुए पूछ ही लिया।

" चौराहे वाले रिक्शा स्टैंड तक चला गया था कक्का , कोई बातचीत करने वाला नहीं मिला आज। सोचा तुम ही कहीं टकरा जाते, तो दिल बहल जाता। ज़िन्दगी के रास्ते ऐसी ज़ख़्मी सड़कों की तरह और रईसों के मिज़ाज इस मटमैले गंदे पानी जैसे ही तो हो गए हैं! घर वाले पैसे वाले भले हों, लेकिन सिर्फ तुम ही तो हो जो अम्मी-अब्बू जैसा प्यार लुटाते हो मुझ पर।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2015 at 4:33pm
बहुत आभारी हूँ आपका आदरणीय Dr Ashutosh Mishra जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2015 at 12:56pm
रचना पर अपना अमूल्य समय देकर टिप्पणी व प्रशंसा कर प्रोत्साहन देने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीय Sushil Sarna जी।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 6, 2015 at 12:55pm

आदरणीय शहजाद जी ..इस मार्मिक लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Sushil Sarna on October 5, 2015 at 7:42pm

ज़िन्दगी के रास्ते ऐसी ज़ख़्मी सड़कों की तरह और रईसों के मिज़ाज इस मटमैले गंदे पानी जैसे ही तो हो गए हैं! घर वाले पैसे वाले भले हों, लेकिन सिर्फ तुम ही तो हो जो अम्मी-अब्बू जैसा प्यार लुटाते हो मुझ पर।
.... वाह अंतिम पंक्ति लघुकथा में निहित मार्मिकता को चरम स्थिति प्रदान करती है .... इस दिल द्रवित करने वाली लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 5, 2015 at 6:02pm
रचना पर उपस्थित हो कर समय देकर अवलोकन करने व प्रोत्साहन देने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीया Kanta Roy जी।
Comment by kanta roy on October 5, 2015 at 3:16pm

बहुत ही मार्मिक कथा बनी है आपकी आदरणीय शहज़ाद जी। बधाई स्वीकार करें 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 3, 2015 at 8:10pm
आदरणीय सतविन्दर कुमार जी और आदरणीया rajesh kumari जी, आदरणीया Janki Wahie जी तहे दिल बहुत बहुत धन्यवाद मेरी रचना को पढ़ने व मुझे प्रोत्साहित करने के लिए।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 3, 2015 at 7:54pm
बेहद उम्दा आ जी।
Comment by Janki wahie on October 3, 2015 at 6:33pm
आ.शेख़ शहज़ाद जी बहुत सुंदर और मार्मिक कथा बनी ये।बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 3, 2015 at 4:58pm

कितना अकेला हो जाता है इंसान यदि आँखें ही साथ छोड़ दे जो अपने पन से दो बात करे अपना थोडा सा वक़्त दे वही सच्चा हमदर्द है पैसा भी ऐसे हमदर्द पैदा नहीं कर सकता उसके अन्दर के अँधेरे को दूर नहीं कर सकता |कहानी दिल को छू गई बहुत मार्मिक ,आपको हार्दिक बधाई आ०  Sheikh Shahzad Usmani जी 

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