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ब्राह्मणवाद (अतुकान्त) // --सौरभ

अतिशय उत्साह

चाहे जिस तौर पर हो 

परपीड़क ही हुआ करता है 

आक्रामक भी. 

 

व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है 

यही उसकी उपलब्धि है 

जड़हीनों को साथ लेना उसकी विवशता 

और उनके ही हाथों मुहरा बन जाना उसकी नियति 

मुँह उठाये, फिर, भारी-भरकम शब्दों में अण्ड-बण्ड बकता हुआ 

अपने वायव्य सिद्धांतो को बचाये रखने को वो 

इस-उस, जिस-तिस से उलझता फिरता है. 

  

भाव और रूप.. असंपृक्त इकाइयाँ हैं 

तभी तक, लेकिन, सहिष्णुता के प्रमाद में 

’ब्राह्मणवाद’ का मुखौटा न धार लें 

जो सोच और स्वरूप में डिस्क्रिमिनेशन को हवा देता है 

स्वयं को ’श्रेष्ठ’ समझने और समझवाने का कुचक्र चलता हुआ 

अपनी प्रकृति के अनुसार ही ! 

फिर निकल पड़ता है हावी होने

अपने नये रूप और नयी चमक के साथ 

पूरे उत्साह में ! 

  

’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है 

आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है 

अतिशय उत्साह में.. 

 

**************************

-सौरभ 

(मौलिक और अप्रकाशित)

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 3:27am

आदरणीय सौरभ सर, गहन चिंतन का प्रतिफलन हुआ करती है ऐसी रचनाएँ. जो भीतर तक झिंझोड़ भी देती है और रचनाकार के शब्द चातुर्य पर मुग्ध हुए जाने को उकसाती भी है. 'ब्राह्मणवाद' शब्द का ऐसा प्रतीकात्मक प्रयोग पहली बार किसी रचना में देख रहा हूँ. ये शब्द इसके मूल अर्थ से बिलकुल भिन्न आडम्बरों और स्वेच्छाचार से पगे हुए खोखले अतिवादी सिद्धांतों के 'तथाकथित वाद' का प्रतीक बनकर उभरा है. इस रचना में  'ब्राह्मणवाद' को  'ब्राह्मणवाद' मानना रचना को नितांत गलत दिशा में खोलते हुए जाना है. इस  'ब्राह्मणवाद' में  'ब्राह्मणवाद' के तत्व अवश्य समाहित है किन्तु इसका अर्थ विस्तार इसके शाब्दिक अर्थ से कई बड़े आयाम पर रचना को ले जा रहा है. यही एक रचनाकार का चातुर्य भी है और कौशल भी.

यह सही है कि जब कोई वाद, अतिवाद हो जाता है, वादी अतिवादी हो जाता है तो केवल वहां विवाद ही उत्पन्न होता है वो भी विचार शून्यता से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता. सीधा सा मतलब होता है केवल एक वृत्त में चक्कर लगाना, जिससे किसी लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता है. यह अवश्य है कि ऐसी अतिवादी सिद्धांत केवल 'जड़हीनों' को अपने साथ लिए जाते है. बढ़िया सवारी कराते है ऐसे 'जड़हीनों' को. सवारी करते हुए ये जड़हीन  स्वयं कब इसके संवाहक बनकर इस्तेमाल की चीज बन जाते है, इसका इन्हें भी पता नहीं चलता है. और फिर लग जाते है ये जड़ हीन अतिवादी मुंह उठाके अण्ड-बण्ड बकने. यह अवश्य है कि ऐसे जड़हीन अपनी वैचारिक भूख को शांत करने का जरिया बना लेते है इस बकवास को. भला कहीं बकवास से भी ये भूख शांत हुआ करती है. बिलकुल सही कहा है सर, ऐसे लोगों को ईश्वर सद्बुद्धि दे, हम तो इतनी ही प्रार्थना कर सकते है......  इन 'जड़हीनों' को ही  'ब्राह्मणवादी' बनाकर पुनः अपने प्रतीक में जिस चतुराई से सम्मिलित किया है, देखकर मुग्ध हूँ. 

और रचना यहाँ दीवाना बना देती है जब रचना  ऐसे अतिवादियों की 'विशिष्ट-गुणों' की कलई खोलते हुए उनकी वास्तविकता को सामने लाती है. ऐसे अतिवादी स्वयं को श्रेष्ट समझने या सिद्ध करने में बौराए से फिरते है. ये जड़हीन हर युग में कई कई रूपों में प्रकट हुआ करते है, कई कई झंडें लेकर.....  पीले झंडे का जड़हीन जो कल तक नीले झंडे को कोसता था अब उसी नीले झंडे को डंडे में पो कर हजार हजार टेसुए बहाए जा रहा है. लेकिन भैये अब ये अतिशय उत्साह छोड़ना होगा. ऐसे जड़हीन ये क्यों भूल जाते है कि ग़ालिब चचा कह गए है कि 

ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर कौन से काम बंद हैं,
रोईये जार जार क्या ,कीजिये हाय हाय क्यूँ

आदरणीय सौरभ सर, एक पाठक के तौर पर इस रचना का जैसा और जो समझ कर आनंद लिया, उसे ही शाब्दिक किया है. हो सकता है रचना उस स्तर तक नहीं समझ पाया हूँगा जैसा रचनाकार का मंतव्य हो लेकिन यह अवश्य है कि ऐसी रचनाएँ पाठकीय छूट का लाभ भी साथ में लेकर आती है. रचना का मर्म दिमाग को झकझोर देता है और रचना अपनी गहराई और सांद्रता के साथ मस्तिष्क को उद्द्वेलित भी करती है लेकिन जिस तरह से रचनाकार शब्द चातुर्य और प्रतीकात्मकता से  व्यंग्य का सृजन करता है, वह भी मेरे जैसे पाठक को मुग्ध करती है. आप को हँसी आएगी लेकिन इस रचना ने मुझे सोचने के लिए विवश अवश्य किया है किन्तु कहीं ऐसे जड़हीनों पर हुए व्यंग्य के शब्द चातुर्य ने गुदगुदाया भी है. इस रचना पर 'गुदगुदाया' शब्द का प्रयोग हो सकता है कई पाठकों को उचित न लगे लेकिन आप मेरे कथ्य के मर्म को समझेंगे इसका पूरा यकीन है. झंडों और नारेबाजी से दूर बिना शोर मचाये रचनाएँ कितना कुछ कह सकती है, कितना प्रभाव पैदा कर सकती है इसका उदाहरण सदैव मैं इस रचना से दूंगा. इस रचना की प्रस्तुति पर एक पाठक की  बधाई.... और  एक अभ्यासी के तौर पर आभार भी....... नमन 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 11:51pm

आदरणीय सुशील सरनाजी, आपने रचना को समय व मान दिया मैं आपका आभारी हूँ

सादर आभार


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 11:50pm

भाई शिज्जू जी, बिना चीखम्चिल्ली मचाये भी रचनाएँ अपना काम करती हैं. यही इनसे अपेक्षित है. आपको एक पाठक के तौर पर मेरा प्रयास सार्थक लगा यह मेरे लिए भी तोषकारी है. 

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 11:48pm

आदरणीय विजय प्रकाशजी, 

//पहले कभी नहीं था-ब्राह्मण वाद // 

वर्ण विशेष की सदाशयता एक ओर, इसकी धमक को मैंने ’स्मृतियों’ के पन्नो में भी महसूस किया है. इसके रूप बदलते रहे हैं.

प्रभु कृष्ण के आधुनिक अनुयायी की माया को आपके साथ-साथ मैं ही नमस्कार करता हूँ. 

आपने रचना को समय दिया आपका अभारी हूँ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 11:32pm

आदरणीय विजय शंकरजी, 

//दो बातें सदैव याद रखनी चाहिए , राजनीति समाज का अंग होता है , समाज राजनीति का अंग नहीं, द्वितीय , राजनैतिक फैसले स्थायी नहीं होते हैं। //

पहली बात भारतीय संविधान की प्रस्तावना के विरुद्ध है. विशेषकर समाज राजनीति का अंग नहीं 

दूसरी बात इस कविता के परिप्रेक्ष्य में कैसे है ? इस कविता में राजनीतिक फैसलों पर चर्चा मेरी समझ से नहीं हुई है. अलबत्ता, युग-युगान्तर की बात हो रही है. 

रचना शब्द सापेक्ष मात्र नहीं है आदरणीय.  

आपने इस प्रस्तुति के सापेक्ष अपने विन्दु रखे, आदरणीय, मैं अनुगृहित हुआ. 

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 11:24pm

आदरणीया कान्ताजी, कविता के कथ्य में वर्णित  ’जड़हीन’ समाज की पीड़ित, शोषित, पद-दलित या वज़ूद केलिए हाहाकार करती इकाइयाँ नहीं हैं. फिर कौन है ये ’जड़हीन’ जो ढोंग और अहंमन्यता के लिए संबल की तरह प्रयुक्त हो जाते हैं ?

इस कविता के सापेक्ष उनको लेकर सोचियेगा. 

सादर

Comment by Sushil Sarna on September 6, 2015 at 8:58pm

आदरणीय सौरभ जी वर्तमान सन्दर्भ में आज की परिस्थितिजन्य परिवर्तन की चलती बयार के आंतरिक भावों को एक कटु यथार्थ के साथ चित्रित करती इस सार्थक अतुकांत रचना की प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई। रचना के अंतिम चरण की ये पंक्तियाँ-
''’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है
आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है
अतिशय उत्साह में..

रचना का सार हैं। पुनः इस संवेदनशील विषय पर आपकी प्रस्तुति को बन्दे का हार्दिक सलाम _/\_


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 6, 2015 at 8:51pm

आदरणीय सौरभ सर इस रचना के लिये आपने जो विषय चुना है वो मैं समझता हूँ कि बड़ी हिम्मत का काम है, आपने अपने विचारॊं को बड़े नपेतुले अंदाज़ में पेश किया है बहुत बहुत बधाई इस सार्थक रचना के लिये

Comment by kanta roy on September 6, 2015 at 8:51pm
" ब्राह्मणवाद " एक गजब की सोच और गंभीर चिंतन ।
चेतना को सावधान करती हुई एक अति सुंदर , सार्थक और सारगर्भित अतुकांत का निर्वाह हुआ है यहाँ ।

अतिशय उत्साह , चाहे किसी रूप में हो , सदा से ही नुकसानदायी हुआ है । यह बिलकुल सही कह रहे है आप आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ।

" ब्राह्मणवाद " , यहाँ एक बहुत बडा प्रसंग आपने इंगित किया है जो विचारणीय हुआ है मेरे लिए ।
" ब्राह्मणवाद " अहंकार को जन्म देता हैै ये तो सनातन सत्य है और ये विनाशकारी भी साबित हुआ है इतिहास में कई - कई बार ।
" श्रेष्ठता " का भान अगर स्वंय में जागे तो ही दंभ को प्राश्रय देता है , अर्थात ये दोनों बात " ब्राह्मणवाद " और " श्रेष्ठता " की भाव हावी होना निर्भर करता है व्यक्ति के अपने - अपने मनोबल पर । मनोबल मजबूत हो तो किसी केंचुल आवरण की जरूरत नहीं पडेगी । कोई दंभ नहीं डिगेगा ।


ये जो बात आपने रखी है //जड़हीनों को साथ लेने की विवशता // तो क्या जड़हीनों के लिए अच्छा सोचना या जड़हीन , जड़हीन की सीमा तोड़े ,क्या ये स्वप्न नहीं होने की जरूरत है ? और अगर ये स्वप्न आपका हुआ तो साथ भी जड़हीनों का लाजमी है ।
" कमल " की तलाश में कीचड़ से दोस्ती होनी ही है ।
बेहद प्रभावित हुई हूँ मै आपकी इस रचना से । सच में मेरे मन को उद्वेलित कर गई और आपकी रचना जन -मानुष के चिंतन मनन को गतिमान करेगी मुझे आशा है । सादर बधाई आपको व नमन लेखनी को ।
Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 6, 2015 at 8:50pm

पहले कभी नहीं था-ब्राह्मण वाद-
यह अंबेडकरवाद की सृजनात्मक आक्रामकता से विस्तारित होता गया.कंसीराम तथा मायावती की माया आज ब्राह्माणवाद संसद में समाया.पिच्छड़े को संगठित करने में काम आया. समाज को बाँटने में बहुत रास आया. सब दलित प्रभु क्रिस्न की माया.

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