है खोया क्या किसे वो आज हर पल ढूँढ़ते हैं,
गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं ।
सभाओं में कोई चर्चा कोई मुद्दा नहीं है,
सभी नेपथ्य में बैठे हुए हल ढूँढते हैं ।
उन्हें होगा तज्रिबा भी कहाँ आगे सफर का,
वो सहरा में नदी, तालाब, दलदल ढूँढ़ते हैं ।
कहीं से खुल तो जाये कोठरी ये आओ देखें,
दरों पर खिडकियों पर कोई सांकल ढूँढ़ते हैं ।
यूँ भी बेकारियों का मसअला हो जायेगा हल,
जो अब तक खो दिया है चल उसे कल ढूँढ़ते हैं ।
यहाँ पर भी किसी दिन कोई लंगर सा लगा था,
ये बच्चे आज भी शायद वो पत्तल ढूँढ़ते हैं ।
सड़क पर जम गई यादों की पपड़ी देखिये तो,
इधर गुजरा हो शायद ख्वाब घायल ढूँढ़ते हैं ।
हैं निकले घोंसलों को छोड़ पहली बार बाहर,
परिंदे खो गए शायद उन्हें चल ढूँढ़ते हैं ।
जो कल तक पेड़ में लगने न देते कोई पत्ता,
बड़ी ही बेहयाई से वही फल ढूँढ़ते हैं ।
मौलिक व अप्रकाशित...
Comment
आदरणीय gumnaam pithoragarhi,आदरणीय rajesh kumari और गिरिराज भंडारी अत्यधिक dhanyvaad
आदरणीय भुवन भाई , बहुत खूब सूरत गज़ल हुई है ! आदरणीय सौरभ भाई के सुझाये सुधारों के बाद और भी शान्दार हो जायेगी । आपको इस बेहतरीन गज़ल के लिये हिली बधाइयाँ ।
यहाँ पर भी किसी दिन कोई लंगर सा लगा था,
ये बच्चे आज भी शायद वो पत्तल ढूँढ़ते हैं ।----वाह्ह्ह्ह आ० भुवन जी क्या जबरदस्त शेर कहा है
जो कल तक पेड़ में लगने न देते कोई पत्ता,
बड़ी ही बेहयाई से वही फल ढूँढ़ते हैं ।---कमाल
आ० सौरभ जी की इस्स्लाह के बाद ग़ज़ल निखर उठी | आपको दिल से बहुत- बहुत बधाई .
वाह भुवन भाई जी बहुत खूब ... सौरभ जी ने विस्तार से चर्चा कर दी है ............. इस खूब सूरत ग़ज़ल के लिए बधाई
आदरणीय Saurabh Pandey साहब मुझे आपसे सदैव इसी प्रकार के स्नेह की अपेक्षा रहती है . मैं इस गजल पर आपके इस्सलाह के अनुरुप संशोधन कर रहा हूँ .
आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहब धन्यवाद...
आदरणीय Abhinav Arun जी धन्यवाद...
आदरणीय Harash Mahajan जी आपने मेरे प्रयास को सराहा बहुत बहुत धन्यवाद...
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